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प्रेम




प्रेम  (दोहे)



श्रद्धा अरु विश्वास से ,बना हुआ है प्रेम।

यह जीवन का मूल्य हो, इससे श्रेष्ठ न हेम।।


जिसको छू दे प्रेम वह, बन जाये प्रिय धाम।

प्रेम रहित हर जीव के, जीवन में है शाम।।


सदा प्रेम के नाम को, जो करता बदनाम।

जगत उसे धिक्कारता, ले कर गन्दा नाम।।


कलुषित मन में प्रेम का, कभी न खिलता फूल।

मरघट बनकर घूमता, करता सब प्रतिकूल।।


सात्विक प्रेम समुद्र को, समझो क्षीर विहार।

लक्ष्मीनारायण यही, करते जग से प्यार।।


प्रेम अनंत विशाल है, फैला है चहुँओर।

कण-कण आपस में  मिले, बंधे प्रेम की डोर।।


अज्ञानी की दृष्टि में, प्रेम विखण्डित सीम।

प्रेमशास्त्र उद्घोष यह, प्रेम अनंत असीम।।


यह परमेश्वर रूप है, शिव सर्वोत्तम भाव।

परम शक्ति इसमें छिपी, दिव्य महान स्वभाव।।


जिसने समझा प्रेम को, बचा  नहीं कुछ शेष।

 पोथी पढ़कर क्या मिला, अगर न प्रेम विशेष।। 


रंग-रूप है प्रेम का, प्रिय मोहक अत्यंत।

यह अति पावन दिव्य धन, जिसे ढूढ़ते संत।।


बहुरंगी सा चमकती, प्रेम रत्न की खान।

इसके आगे शून्य है, सारा सकल जहान।।


निंदनीय वह जगत में, जिसे न अच्छा प्रेम।

प्रेमी उर ही करत है, वहन योग अरु क्षेम।।




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2 Comments

Renu

23-Jan-2023 04:51 PM

👍👍🌺

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अदिति झा

21-Jan-2023 10:39 PM

Nice 👍🏼

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