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मानवता




मानवता  (दोहे)


मानवता को नहिं पढ़ा, चाह रहा है भाव।

यह कदापि संभव नहीं, निष्प्रभाव यह चाव।।


नहीं प्राणि से प्रेम है, नहीं सत्व से प्रीति।

चाह रहा सम्मान वह ,चलकर चाल अनीति।।


मन में रखता है घृणा, चाहत में सम्मान।

ऐसे दुर्जन का सदा, चूर करो अभिमान।।


मानव से करता कलह, दानव से ही प्यार।

ऐसे दानव को सदा, मारे यह संसार।।


मानवता जिस में भरी, वह है देव समान।

मानवता को देख कर, खुश होते भगवान।।


मानव बनने के लिये, रहना कृत संकल्प।

गढ़ते रहना अहर्निश, भावुक शिव अभिकल्प।।


मानवता ही जगत का, मूल्यवान उपहार।

मानवता साकार जहँ, वहाँ ईश का द्वार।।





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