संवेदनहीनता
संवेदनहीनता (दोहे)
कैसे मानव हो रहा, अति संवेदनहीन।
चौराहे पर है खड़ा, बना दीन अरु हीन।।
भौतिकता की ओढ़कर, चादर चला स्वतंत्र।
चाहत केवल एक है, चले उसी का तंत्र।।
धनलोलुपता गढ़ रही, धूर्त पतित इंसान।
धन के पीछे भागते, भूत प्रेत शैतान।।
भावुकता अब मर रही6, हृदय बना पाषाण।
काम क्रोध मद लोभ के, कर में दिखत कृपाण।।
नैतिकता को कुचल कर,कौन बना भगवान?
नैतिक मूल्यों में बसा, अति सुंदर इंसान।।
जहाँ सहज संवेदना, वहाँ अलौकिक देश।
लौकिकता के देश में, कुण्ठा का परिवेश।।
संवेदन को मारते, जीवन को धिक्कार।
भावुक कोमल हृदय ही, ईश्वर को स्वीकार।।