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टूट रहा है मन का मन्दिर





*टूट रहा है मन का मन्दिर*

 तोड़ न देना शीशे का दिल। 
इतना नफरत क्यों ऐ काबिल??
 क्या य़ह तुझे पराया लगता?
हृदय करुण रस क्यों नहिं बहता ??

 तड़पा तड़पा कर अब मारो।
इसको कहीं राह में डारो।।
इसकी ओर कभी मत ताको। 
मुड़कर इसे कभी मत झांको।।

 रुला रुला कर सो जाने दो। 
अंत काल तक खो जाने दो।।
नहीं कभी भी इसे जगाना।
इसे त्याग कर हट बढ़ जाना।।

 रोता रहता मन जंगल में।
कौन सुने निर्जन जंगल में।।
हृदय कहाँ रहता जंगल में।
असहज यहाँ सभी जंगल में।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।





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