पनाहों के तलबगार हम
बिखरे हुए से अकेले हम
इस स्याह रात के काले अंधेरे में
बैठे थे ना जाने कब से
पता नहीं किस के इंतजार में
बस यूं ही बेवजह
काट रहे थे जिंदगी अपनी
और गिन रहे थे गुजरते दिन
फिर ना जाने कहां से एक दिन
दूर से कहीं छोटी सी रोशनी
मिली हमें उन की पनाह में
रोका बहुत था खुद को
उनकी पनाहों में जाने से
पर रोक पाते आखिर कब तक
थे तन्हा हम भी एक अरसे से
घिरे अपने ही बनाए जाल में
खींचते चले गए हम
यूं ही उनकी पनाह में
है बची जितनी भी यह जिंदगी
हैं उनकी पनाहों के तलब गार हम
है नहीं अब कोई और ठिकाना हमारा
सांसे हैं जब तक अब तो
बस जीना है उनकी पनाह में;
समाप्त।।
Simrana
Swati chourasia
09-Sep-2021 07:04 AM
Very beautiful
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Renu Singh"Radhe "
08-Sep-2021 10:35 PM
बहुत खूब
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