Simran Ansari

लाइब्रेरी में जोड़ें

पनाहों के तलबगार हम

बिखरे हुए से अकेले हम


इस स्याह रात के काले अंधेरे में

बैठे थे ना जाने कब से

पता नहीं किस के इंतजार में

बस यूं ही बेवजह

काट रहे थे जिंदगी अपनी 

और गिन रहे थे गुजरते दिन

फिर ना जाने कहां से एक दिन

दूर से कहीं छोटी सी रोशनी

मिली हमें उन की पनाह में

रोका बहुत था खुद को

उनकी पनाहों में जाने से

पर रोक पाते आखिर कब तक

थे तन्हा हम भी एक अरसे से

घिरे अपने ही बनाए जाल में

खींचते चले गए हम

यूं ही उनकी पनाह में

है बची जितनी भी यह जिंदगी

हैं उनकी पनाहों के तलब गार हम

है नहीं अब कोई और ठिकाना हमारा

सांसे हैं जब तक अब तो

बस जीना है उनकी पनाह में;



समाप्त।।

Simrana

   4
2 Comments

Swati chourasia

09-Sep-2021 07:04 AM

Very beautiful

Reply

Renu Singh"Radhe "

08-Sep-2021 10:35 PM

बहुत खूब

Reply