Haaya meer

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रंगमंच

पाँच बजे ही वह श्रीराम सेंटर पहुँच गया। हालाँकि शो साढ़े छह बजे से था, पर उसे चैन नहीं था। आज के दिन का वह बड़ी बेसब्री से पिछले एक हफ्ते से इंतजार कर रहा था। कैसे उसने ये सौ रुपए बचाए थे, यह वही जानता था। पाँच बजे आ गया था कि अगर भीड़ ज्यादा भी हो, तो टिकट आराम से मिल जाए। मलिक भाई को बोल दिया था कि आज नाटक देखने जाना है, जल्दी जा रहा हूँ।


यहाँ पहुँचकर बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे सपनों की दुनिया में आ गया हो। हर तरफ नाटक के पोस्टर और वही लोग, वही माहौल। उधर एन.एस.डी. चले जाओ या इधर श्रीराम सेंटर में आ जाओ। हर तरफ वही लोग दिखाई देते हैं, जिनसे उसे प्रेरणा मिलती है। हर वक्त नाटकों में डूबे हुए, रंगमंच की बातें करते हुए। यही माहौल वह चाहता था, जो अपने छोटे-से शहर में उसे नहीं मिल पाता था। यही माहौल, जिसके लिए वह अपने घर से इतनी दूर दिल्ली आया था।

हाँ, वहाँ भी कभी-कभी नाटक होते थे, जब कोई संस्था कई जगहों की नाटक कंपनियों को आमंत्रित कर, नाटक मंचित कर अपने संस्थापक को या कोई उद्योगपति अपने पिता को श्रद्धांजलि देना चाहता था। उनमें टिकट नहीं लगते थे। वह हर रात देर तक बैठकर सारे मंचन देखा करता था। टिकट न लगने के बावजूद हॉल लगभग खाली ही रहता था। रात को जब घरों में खाना-वाना बनने का समय होता, तो हॉल में लोगों की संख्या थोड़ी बढ़ जाती, जिनमें बच्चे ज्यादा होते। कारण उसे यही समझ में आता था कि खाना बनाने में जब बच्चे माँ को परेशान करते होंगे, तो माँ कहती होगी - ‘जा बेटा चुन्नू, नागरी नाटक मंडली में एक नाटक देखकर आ, तब तक मैं खाना बना लूँगी। यहाँ रहेगा, तो मुन्नी से झगड़ा करता रहेगा।’ पत्नियाँ अपने पतियों को पुचकारती होंगी - ‘अरे, आप मुझे आराम से खाना बनाने दीजिए न! तब तक जाइए, शर्मा जी को लेकर थोड़ी देर नाटक देख आइए। खाना बनाकर मैं गोलू को भेजकर आपको बुलवा लूँगी।’ नाटक चलने के दौरान गेट खुला रहता। जिसका जब मन करता, जाता, जब मन करता चला आता। पहली और दूसरी पंक्ति के दर्शकों को छोड़कर, जिनमें ज्यादातर नाटकों और निर्णायक मंडल से जुड़े लोग होते, कोई लगातार पाँच मिनट मुँह बंद करके न बैठता। बीच-बीच में लोग सीटियाँ भी मार देते, खासतौर पर जब मंच पर कोई सुंदर लड़की आती और तालियाँ न बजानेवाली जगह पर भी अपने शहर की प्रसिद्ध मस्ती का उदाहरण देते हुए इतनी एकता से इतनी देर तक तालियाँ बजाते कि अगली दो-तीन लाइनें सुनाई ही न देतीं।

दर्शकों में किशोर लड़कियों के होने की भी संभावना होती है। इस संभावना को नजरअंदाज न करते हुए कुछ स्थानीय स्कूलों के किशोर भी संभावनाएँ तलाश करने थियेटर में आ जाते। नई सुंदर शर्टें और टमाटर कट जाने लायक क्रीज लगी पैंटें पहनकर।

कुछ गिनती के ही दर्शक होते, जो नाटक को नाटक की तरह देखते। बाकी सिर्फ वहाँ टाइम पास करने आते और उजड्डई करते रहते। उसे बहुत गुस्सा आता। ये नाट्य संस्थाएँ, जो इतनी दूर से आई हैं, क्या सोचेंगी हमारे शहर के बारे में? क्या यह वही शहर है जिसने देश के बड़े-बड़े नाटककारों भारतेंदु और प्रसाद को जन्म दिया है जिनके नाटकों के मंचन आज भी देश के हर कोने में होते हैं।

कुछ देर में लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। हर तरफ पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों के झुंड दिखाई देने लगे थे। सुंदर-सुंदर कारों में बैठकर आए आदमी-औरतें और खूबसूरत युवा जिनके सामने संभावनाओं के असीम सागर लहरा रहे थे, सिर्फ नाटक देखने के लिए अपना समय निकाल कर आए थे। सबकी ओर देखकर यही लग रहा था कि सभी सिर्फ नाटकों और नसीर जी के विषय में बातें कर रहे हैं।

एक सपने के सच होने जैसा है सब कुछ उसके लिए। रंगमंच का बेताज बादशाह, उसका प्रिय अभिनेता आज उसके सामने अभिनय करेगा। यहाँ वास्तविक कद्र है नाटकों और अभिनेताओं की वरना वहाँ उसके शहर में एक बार दोस्तों ने सिर्फ इस बात पर उसका मजाक उड़ाया था कि वह अंधे लड़कों द्वारा प्रस्तुत नाटक देखने चला गया था।

‘तो क्या तुम लोग सिर्फ लड़कियाँ देखने जाते हो? नाटक अच्छा हो बुरा, अभिनय किस स्तर का है, प्रकाश, मंच, संगीत कैसा है, इससे तुम्हें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता?’ पूरी बहस के बाद उसे वाकई चौंकानेवाली यह बात पता चली थी।

बदले में सब सिर्फ हँसे थे। उसे अपनी संगति पर तरस आया था। स्नातक की परीक्षा खत्म होते ही उसने दिल्ली की ओर कूच कर लिया। वहाँ वैसे भी उसके लिए कुछ खास नहीं बचा था। पिता से उसका अल्प संवाद, जो शुरू से ही औपचारिक रहा था, अब नाटकों में उसके बढ़ते शौक से खत्म-सा हो गया था। माँ बड़े भाइयों की तनख्वाह, उनकी शादी जैसे गंभीर मसलों से जूझने लगी थी। उसे किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की।

यहाँ उम्मीदों के जहाज पर बैठ कर आया वह उस समय बिल्कुल निराश हो गया जब उसने छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको भागते देखा। एक अंधी दौड़ में, जहाँ उन्हें खुद ही नहीं पता कि किस कीमत पर क्या पाने के लिए दौड़ रहे हैं। उसने एक गोल परिधि में भागते हुए लोगों को देखा, जो भागकर हर शाम उसी बिंदु पर आ जाते हैं, जहाँ से सुबह भागना शुरू किया था। जिंदगी का एक दिन निकल जाने का उन्हें अहसास भी नहीं होता और वे अगली बार भागना शुरू कर चुके होते हैं। वह समझ गया कि यहाँ जगह बनाना उतना आसान नहीं हैं, जितना उसने समझ रखा था।

नाटकों का आनंद उठाने के लिए जिंदा रहना जरूरी था, जिंदा रहने के लिए कुछ खाना और कुछ खाने के लिए कुछ कमाना। उसने एक कूरियर कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। हालाँकि बिना बाइक के काम मिलने में दिक्कत हुई और करने में भी दिक्कत होती थी, पर अंदर एक जुनून उसे हर वक्त सक्रिय रखता था। चाहता, तो दिल्ली में कई रिश्तेदारों ओर दोस्तों से उधार या कुछ मदद ले सकता था पर अपनी अंदरूनी आग और जुनून ने उसे अकेला ही अपने सपनों के घरौंदे की दीवार पर अपने पसीने का प्लास्टर करने में लगाए रखा।

कुछ समय के बाद उसने एक नाट्य संस्था ज्वाइन कर ली जहाँ शाम को दो-ढाई घंटे रिहर्सल में देने पड़ते थे। निर्देशक ने जो उस नाट्य संस्था का मालिक था, उससे आठ सौ रुपए फीस भी ली जो बाद में उसे व्यर्थ जान पड़ने लगी। तीन नाटकों का अनुभव बताने पर भी निर्देशक ने उसे बैकस्टेज के काम में लगाया था और इतने दिन बीत जाने पर भी वह अब तक वही कर रहा था। लेकिन पात्रों के संवाद बोलने के ढंग से ही उसे संस्था का पूरा स्तर समझ में आ गया था। सदस्य कई राज्यों और जिले से थे। उनकी संवाद बोलने की अदा इतनी कातिल थी कि वह आँख बंद करके उनके राज्यों के नाम और उनकी मातृभाषा बता सकता था। धीरे-धीरे उसने वहाँ जाना छोड़ दिया और किसी योग्य निर्देशक और नाट्य संस्था की खोज करने लगा।

अब दिन भर वह अपना काम करता और शाम को ऑफिस में रिर्पोटिंग कर सीधा मंडी हाउस की बस पकड़ता। एन.एस.डी. और श्रीराम सेंटर में लगे बुलेटिनों से संस्थाओं के पते और निर्देशकों का फोन नंबर नोट करता। फिर प्लान करता कि काम का बोझ थोड़ा कम होने और पैसों की आवक थोड़ी बढ़ जाने पर वह किसी अच्छी नाट्य संस्था से जुड़ कर अभिनय करेगा। तब तक नाटकों से जुड़े रहने का तरीका उनका मंचन देखना और उनसे जुड़ा साहित्य पढ़ना था।

धीरे-धीरे काफी लोग इकट्ठे हो चुके थे। वे अपने मित्रों के साथ छोटे-छोटे झुंड बनाए बातचीत कर रहे थे। उसे महसूस हुआ, कितनी तन्मयता से वे नाटक के पोस्टरों को देख रहे हैं ओर कितने भक्ति भाव से नाटकों के विषय में बातें कर रहे हैं वरना वहाँ तो पिता यह कहते थे कि यह भाड़ों के काम दो-चार छिछोरे ही करते हैं, कोई शरीफ घर के थोड़े ही...।

हालाँकि इतनी कम तनख्वाह में हर नाटक देख पाना संभव नहीं था, पर वे नाटक वह जरूर देखता जिनके टिकटों के मूल्य कम होते। दस, पच्चीस या ज्यादा से ज्यादा पचास। पैसों की कमी की वजह से उसे कई पसंदीदा निर्देशकों के नाटक छोड़ देने पड़ते जिसकी पूर्ति वह उनकी समीक्षा पढ़ कर किया करता था।

जिंदगी अभी काफी कठिनाई से चल रही थी। यह सौ रुपए जुटाने के लिए उसने पिछले एक हफ्ते से एक भी चाय नहीं पी थी और पिछले चार दिनों से सिर्फ दोपहर का खाना खाया था। एकदम बीच दोपहरी में खाओ तो वह सुबह के खाने के पूर्ति भी करता है और रात को भी उतनी जरूरत महसूस नहीं होती। फिर एक टाइम खाकर यदि दिल और दिमाग को इतनी अच्छी खुराक मिले तो और क्या चाहिए। और चाय तो वैसे भी कोई पौष्टिक चीज नहीं है। जितनी जल्दी इसकी आदत छूट जाय, उतना अच्छा है। हालाँकि हल्की-हल्की भूख लग रही थी पर इतने अच्छे माहौल में इतने अच्छे अभिनेता का नाटक देखने का उत्साह उस भूख पर हावी था।

वह खुश था और पहली बार सौ रुपए का टिकट खरीदने को लेकर एकदम गंभीर था। जेब में कुछ खुले पैसे थे जो बस के टिकट के काम आनेवाले थे। टिकट अगर पचास का हुआ तब तो मजा आ जाएगा। नाटक भी देख लेगा और आज फुल प्लेट सब्जी भी खा लेगा। पचास रुपए चार-पाँच दिन तो चल ही जाएँगे, उसके बाद तनख्वाह भी मिल जाएगी। यही तो सोचा था कि यह नाटक देख लेगा फिर अगर पैसे बच गए तो रात को खाएगा। मलिक भाई को बोल दिया है कि इस बार तनख्वाह एकदम टाइम पर चाहिए।

मलिक भाई उस कूरियर कंपनी का मालिक था जिसमें वह काम करता था। उसे देखने पर लगता था कि वह कूरियर कंपनी चलाने के लिए ही धरती पर पैदा हुआ है। छोटा कद, दूर तक निकला हुआ पेट, खूब बड़ा सा सिर जिस पर बचे बालों को रँगने के चक्कर में वह अक्सर अपनी चाँद भी रँग लेता था। ढीले-ढाले लबादे जैसे कपड़ों में वह खुद एक इंटरस्टेट पार्सल लगता था। लेकिन वह दिल का अच्छा इनसान था और उसके नाटक प्रेम के कारण ऑफिस से थोड़ा जल्दी निकल जाने की इजाजत दे दिया करता था, क्योंकि उसके अनुसार वह बिजनेसमैन होने के बावजूद एक कलाप्रेमी था और अपने कॉलेज के दिनों में नाटकों में ‘हीरो’ बना करता था। उसने मलिक भाई से भी एकाध बार, मजाक में ही सही, नाटक देखने चलने के लिए कहा था लेकिन उसका खयाल था कि पूरी दुनिया ही एक रंगमंच है और हम सब कठपुतलियाँ। वह चूँकि इस दुनिया के नाटकों को बहुत करीब से देख चुका है, इसलिए इन नाटकों में उसका उतना मन नहीं लगता। उसके नाटकों की बातें करने पर मलिक भाई अक्सर यह बात दोहराता था और बाद में यह भी जरूर जोड़ता था कि जवानी में वह बहुत रसिक और कलाप्रेमी था। आज उसके द्वारा नसीरुद्दीन शाह का जिक्र करने पर उसने उसे तुरंत छुट्टी दे दी और इस राज का खुलासा किया कि वह जवानी में नसीरुद्दीन शाह का बहुत बड़ा फैन रह चुका है और उसकी ‘कागज के फूल’ उसने चार बार देखी है।

वह टिकट खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा था। अब तक तो खुल जानी चाहिए थी। अमूमन साढ़े छह के शो के लिए पौने छह तक खिड़की खुल जाती है, पर छह से ऊपर हो रहे हैं और खिड़की अब तक नहीं खुली। उसने बंद खिड़की के अंदर एक आदमी को कुछ कागजात सँभाल कर ले जाते देखा।

‘सुनिए भाई साहब...।’

‘हाँ, बोलो।’

‘यह विंडो अब तक बंद क्यों है? टिकट कब से मिलेंगे?’

‘टिकट...? काहे के टिकट?’

‘अरे, इस नाटक के और काहे के...।’

‘टिकट नहीं है।’

‘तो फिर...?’ वह आश्चर्यचकित था।

‘पास से एंट्री है।’

‘पास से...? वह कैसे मिलेंगे?’ वह भौंचक था। उसे पता ही नहीं चला।

‘मिलेंगे क्या। जिसको मिलने थे मिल गए।’ वह आदमी खीज रहा था।

‘पर यहाँ होर्डिंग पर तो लिखा होना चाहिए था कि पास से एंट्री होगी।’ वह थोड़ा रुआँसा हो आया था।

‘तो होर्डिंग पर लिखा हैं क्या कि टिकट से एंट्री होगी? हुँह।’ वह आदमी भुनभुनाता हुआ वहाँ से चला गया।

इसके बारे में तो सोचा ही नहीं था। उसने ध्यान दिया कि जितने भी लोग अंदर जा रहे हैं सबके हाथ में सफेद कार्ड हैं। तो इसलिए विंडों अब तक नहीं खुली। वह बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गया। पूरा शरीर अंदर से एक अप्रत्याशित झटके से काँप रहा था। एक सुनहरा ख्वाब पूरा होते-होते रह गया। नसीर को करीब से देखने का इतना सुलभ मौका हाथ से जा रहा है। एक इतना बड़ा ख्वाब जो इतनी आसानी से पूरा होने वाला था, टूट रहा है।

एक पल के लिए उसे लगा चलो कोई बात नहीं। यहाँ तो बड़े-बड़े कलाकार आते ही रहते हैं। आज नहीं किसी और दिन सही। लेकिन फिर एक साधारण महानगरीय कलाप्रेमी पर एक छोटे शहर का असाधारण कला प्रेमी हावी हो गया जिसके लिए अपने आदर्श अभिनेता को साक्षात अभिनय करते देखना एक साधारण घटना कतई नहीं थी।

एक अंतिम प्रयास करते हैं। वह गेट पर खड़ा हो गया और प्रवेश करते लोगों से पूछने लगा, ‘हेलो सर, क्या आपके पास एक अतिरिक्त पास है?’

‘नो सॉरी।’

‘हेलो सर, डू यू हैव एनी एक्स्ट्रा पास?’

‘सॉरी यंग मैन।’

‘सर क्या आपके पास...?’

‘सॉरी।’

‘सर, आई नीड अ...।’

‘सॉरी।’

‘सर, इफ यू...।’

‘सॉरी, आइ डोंट हैव...।’

हर जवाब के साथ वह और निराश होता चला गया। एक अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का उसकी गतिविधियों को ध्यान से देख रहा था। वह उदास और निराश टहलता एक समूह के पास जाकर खड़ा हो गया जिसमें तीन खूबसूरत लड़कियाँ और दो स्मार्ट दिखते लड़के आपस में बातें कर रहे थे। वह बोझिल मन के साथ खड़ा उस बोर्ड को देख रहा था जिस पर नाटक का परिचय लिखा हुआ था। लड़के-लड़कियाँ बातों में मशगूल थे। वह उनकी बातों को भी सुनने की कोशिश कर रहा था, शायद नसीर साहब के आगे के प्रोग्राम के बारे में कुछ पता चल जाए।

‘व्हाट दिस प्ले इज ऑल अबाउट?’ लंबे बालों और कान में बाली पहने लड़के ने पूछा।

‘आइ डोंट नो एक्जैक्टली, थिंक बेस्ड ऑन सम स्टोरीज।’ सफेद कुरतेवाली लड़की ने बताया।

‘पर यार अक्षय, इतनी भीड़ क्यों है आज?’ लाला टी-शर्ट वाली लड़की ने पूछा जिसके टी-शर्ट का फैलाव उसके जिस्म के फैलाव के सामने कम क्षमता वाला साबित हो रहा था।

‘यार, नसीर हैज कम फार दिस शो।’ सफेद कुरतेवाली लड़की बोली।

‘हूँ नसीर?’ लड़की की जिज्ञासा और बढ़ी।

‘नसीरुद्दीन शाह, द फेमस एक्टर ऑफ आर्ट सिनेमा।’ बाली और लंबे बालों वाले लड़के ने फटाक से नसीरुद्दीन शाह का उपयुक्त वर्गीकरण कर अपने ज्ञान और प्रेजेंस ऑव माइंड से लड़की को प्रभावित करने की चेष्टा की।

‘आइ डोंट लाइक आर्ट सिनेमा एंड नसीरुद्दीन शाह।’ लड़की ने उसकी चेष्टा पर पानी फेरते हुए अपने दोनों हाथ ऊपर किए, अँगड़ाई ली और अपनी नाभि का दर्शन उपस्थित लोगों के लिए और सुलभ कर दिया।

‘देन हूम डू यू लाइक।’ लड़का झेंप मिटाने के लिए इस प्रश्न का उपयोग रबर की तरह कर रहा था कि लड़की के जवाब पर उसे लाजवाब कर सके।

‘टॉम क्रूज।’ लड़का खुद लाजवाब हो गया।

वह इन बातों को सुनकर आश्चर्य में डूबा जा रहा था। बाप रे, इनके बारे में वह क्या-क्या सोच रहा था। ये इतने कला प्रेमी हैं, समर्पित हैं और ना जाने क्या क्या...। इन्हें तो यहाँ क्या हो रहा है, यह भी नहीं मालूम।

‘आइ अल्सो डोंट लाइक दिस आर्ट सिनेमा एंड दीज बोरिंग हिंदी प्लेज आल्सो...।’ नीले टॉपवाली लड़की ने उस लड़की से दो कदम आगे बढ़कर उसका समर्थन किया जिससे वह बहुमत में आ गई। इस खुशी में वे दोनों अपने बाकी दोस्तों से चार कदम आगे जाकर सिगरेट पीने लगीं। लंबे बालों वाला लड़का अपने बालों और बाली की वजह से लड़कियों के समूह में जा मिला और सिगरेट पीने के कार्यक्रम में उनका सहयोग करने लगा।

बाकी बचे दोस्त आपस में बातें करने लगे।

‘यार अमित, तू अकेला कैसे? रश्मि कहाँ है?’ सफेद कुरते में थोड़ी शालीन लगती लड़की ने शालीन भाषा में पूछा।

‘शी इज अबाउट टु कम।’ गोरे लड़के ने गंभीरता से जवाब दिया।

‘श्योर...?’ प्रश्न में शायद कोई व्यंग्य छिपा था।

‘श्योर। और अगर नहीं आई तो ये दोनों पास फाड़ दूँगा एंड विल नेवर मीट हर।’ लड़का थोड़ा गुस्से में आ गया था।

उसने तिरछी निगाहें करके उस लड़के को देखा जिसके लिए इस नाटक से जरूरी एक लड़की का यहाँ पहुँचना था। काश, वह लड़की न आए और वह उस लड़के से एक पास माँग कर यह नाटक देख सके।

‘और प्ले नहीं देखोगे?’ सफेद कुरतेवाली लड़की ने पूछा।

‘बुलशिट प्ले।’

लड़की चुप हो गई। थोड़ी देर चुप रह कर फिर उसे समझाने लगी, ‘यू नो, यू ऑल गाइज हैव सेम प्रॉब्लम। रश्मि विकी के साथ थोड़ा घूमने क्या चली गई, तुम...।’

उसने आगे नहीं सुना। वहाँ से हट गया। इस प्रांगण में खड़े होकर भी लोग ये सब बातें सोच सकते हैं। उनका छोटी-छोटी समस्याओं को इस नाटक पर तरजीह देना रास नहीं आया। एक वह है जो खाने जैसी बुनियादी चीज कुर्बान करके आया है, फिर भी उसे देखने की अनुमति नहीं है। और एक ये हैं जो सिर्फ घूमने के मकसद से यहाँ आए हैं। उसने एक बार पूरी भीड़ की तरफ देखा। न... कोई नहीं, कोई नाटक देखने नहीं आया, सब सिर्फ टाइम पास करने आए हैं। उसे लगा जैसे वह नसीर को देखने के लिए उतावला हो रहा है, उसका शतांश भी कोई नहीं है। सभी अपनी शाम को थोड़ा खुशनुमा बनाने चले आए हैं।

लड़का अब भी उसकी ओर देख रहा था। वह उसकी ओर चलने लगा तो लड़का भी उसकी ओर आने लगा।

‘क्या बात है?’ लड़का पास आकर धीरे से बोला।

‘कहाँ क्या बात है?’ उसे प्रश्न ही समझ में नहीं आया।

‘पास नहीं है?’

‘नहीं...।’

‘चाहिए?’

उसके कान खड़े हो गए। लड़का उसे देवदूत नजर आने लगा। लोग अंदर घुसना शुरू कर चुके थे। नाटक शुरू होने में अभी भी पंद्रह-बीस मिनट की देरी थी। वह उतावला हो उठा।

‘हाँ... चाहिए। प्लीज आप दिला सकते हैं?’

‘हाँ, मैं दिला सकता हूँ।’ लड़के ने उसका हाथ पकड़ कर सड़क के एक किनारे खींच लिया और सावधानी से इधर-उधर देखता हुआ बोला।

‘डेढ़ सौ लगेंगे।’

‘डेढ़ सौ...? पर मेरे पास तो...।’ वह फिर से नाउम्मीद होने लगा।

‘कितना है... कितना?’ लड़का जल्दी में लग रहा था।

‘सौ रुपए।’ उसके मुँह से निकल गया।

‘जल्दी दो।’

उसने थोड़ा हिचकिचाते हुए जेब से सौ का नोट निकाला ही था कि लड़के ने फटाक से नोट छीनकर जेब के हवाले कर दिया। पलक झपकते ही पास उसके हाथ में था और लड़का सड़क के दूसरी ओर से जा रहा था।

अब वह भी उस भीड़ का एक हिस्सा था जिनके पास अंदर घुसने के लिए पास थे। पास मिल जाने का उत्साह और खुशी दिल में छा गई थी। कभी वह पास को जेब में रखता और कभी निकाल कर हाथ में ले लेता। उस लड़के के लिए शायद सौ रुपए बड़ी चीज थी। उसे पता नहीं था कि जेब में पैसे न होने पर भी उसके लिए इस पास के आगे सौ रुपए की कोई कीमत नहीं थी। मन में एक खलिश जरूर थी कि आगे के चार-पाँच दिन कैसे बीतेंगे। शायद एक बार जोर देता तो लड़का बीस रुपए कम में भी मान जाता ओर एकाध बार के खाने का इंतजाम हो जाता। यह वह क्या सोच रहा है। भला यहाँ खड़ा होकर, वह भी पास के साथ, यह सब सोचना चाहिए? पास मिल गया, क्या कम है? इसमें भी ईश्वर का चमत्कार है। वह खाने और भूख की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश करने लगा मगर दिमाग था कि बार-बार इन्हीं समस्याओं की ओर जाने लगा था। दिन में एक बार खाने का भी क्रम टूट जाएगा शायद...। फिर वह जिंदा कैसे रहेगा? वह काम तो करेगा नहीं जो अब तक नहीं किया यानी परिचितों से उधार माँगना। फिर...? नाटक देखना तो बहुत जरूरी है। उसी के लिए तो यहाँ आया है। पर खाना भी तो...। वह अंदर से थोड़ा बेचैन महसूस करने लगा।

‘यार, दिस इवनिंग इज सो रोमांटिक।’ उसकी बगल में खड़े समूह में से एक संभ्रांत दिखते आदमी ने अपने दोस्त से कहा।

‘देन व्हाय आर यू वेस्टिंग योर ब्यूटिफुल इवनिंग हियर विदाउट बॉटल?’ सिगरेट की राख झाड़ते उसके दोस्त ने पूछा।

‘नथिंग, माय बॉस इज कमिंग हियर टुडे। इट्स अ ग्रेट चांस टु इंप्रेस हिम।’ और वह हँसने लगा।

वह वहाँ से भी हट गया। इतनी भीड़ में है कोई जो वाकई नाटक ही देखने आया है और इस नाटक के न देखने पर उसे कोई फर्क पड़ेगा या सिर्फ वही...। वह थोड़ा और आगे बढ़कर गेट के पास खड़ा हो गया। और याद आया कि कल उसने साबुन खरीदने के बारे में सोचा था पर पैसे नहीं थे पर पैसे नहीं थे। पिछले दस दिनों से साबुन बिना ही काम चला रहा है। शरीर से गंध तो नहीं आ रही? उसने धीरे से गर्दन घुमाकर कंधे के नीचे सूँघने की कोशिश की। मगर आसपास के जिस्मों से इतनी अच्छी खूशबू आ रही थी कि अपने जिस्म से भी उसे खुशबू सी उठती महसूस हुई।

सामने की दुकान पर कुछ लोग छोले-भटूरे और पेटीज खा रहे थे। आज उसने भूख की वजह से खाना दोपहर में जल्दी ही खा लिया था इसलिए भूख जग आई थी। क्या करे, कुछ खा ही ले। वह थोड़ा हिचकिचा कर दुकान की ओर बढ़ गया।

‘छोले भटूरे कैसे प्लेट हैं भइया?’

‘बारह रुपए।’ उसका मन बुझ गया।

‘और पैटी?’

‘आठ रुपए।’

उसने चेंज निकाली। बस के किराए के बाद पाँच रुपए ही बचते थे। गरम-गरम भटूरे उसके पेट की आग में घी डाल रहे थे। कभी उसके मन में नसीर की उतार चढ़ाव युक्त संवाद शैली गूँजने लगती और कभी गरम छोले भटूरे और पैटीज का स्वाद जबान पर आते-आते रह जाता। वह बेचैन सा होने के कारण इधर-उधर टहलने लगा था।

इसी बीच एक आदमी बाइक रोककर अपने दोस्त के साथ उतरा और जल्दी से झुंड में खड़े लोगों के पास जाकर कुछ पूछने लगा। सब तरफ पूछ लेने के बाद वे दोनों उसकी ओर बढ़े।

‘हेलो बॉस, एक्स्ट्रा पास है क्या?’

‘नहीं, केवल एक ही है।’ उसने जवाब दिया।

‘तुम अकेले ही हो न? यार हमें दे दो पास। मेरे दोस्त के पास नहीं है।’ उसने हँसते हुए मजाक में प्रस्ताव रखा और यह सोच कर कि यह माना नहीं जाएगा, थोड़ा आगे निकल गया। उसके दोस्त ने भी पलट कर मजाक में कहा, ‘दे दो यार, सौ-डेढ़ सौ ले लो। इसे अकेले जाना पड़ेगा।’

वह सकते में खड़ा था। एक कठिन फैसला तुरंत लेना था। दोनों गेट के अंदर जा चुके थे। दुकान में अभी-अभी राजमा भी बन कर तैयार हुआ था। लोग थालियों में राजमा चावल लेकर खा रहे थे। राजमा से खुशबूदार भाप उठ रही थी। वह कुछ सोच ही रहा था कि उसके अंदर से एक तेज आवाज निकली, ‘हैलो सर, दो सौ।’

दोनों कुछ आगे निकल चुके थे। आवाज सुनकर वे पलटे और उसकी ओर आने लगे। उनमें से एक ने पर्स निकाल लिया। वह आश्चर्यचकित था कि वह तो बोला ही नहीं फिर उसके मुँह से आवाज कैसे निकली। वह पास उनको नहीं देगा। आखिर नसीर का नाटक है। पता नहीं फिर कब हो। नहीं, वह खुद नाटक देखेगा। किसी कीमत पर पास उसको नहीं देगा। पैसे क्या इन सब चीजों की कीमत चुका सकते हैं। एक दोस्त ने सौ-सौ के दो नोट निकाल लिए थे। उसने एक हाथ से रुपए पकड़े और दूसरे हाथ से पास उसको थमा दिया। दोनों गेट के अंदर चले गए। वह वहीं खड़ा रहा। उसे मलिक भाई की बात याद आई। पूरी दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी उसकी कठपुतलियाँ। वह जबरदस्ती एक फीकी मुस्कान मुस्कराया। हाथ में सौ-सौ के दो नोट फँसे थे। थोड़ी देर तक वह खड़ा होर्डिंग की तरफ देखता रहा। एक सौ का नोट जेब में डाला, अगले दिन होनेवाले नाटक की टाइमिंग को मन में दोहराता हुआ एक सौ का नोट हाथ में लेकर दुकान की ओर बढ़ गया। छोले-भटूरे और राजमा चावल की प्लेटों से धुआँ उठ रहा था।

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