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भाग्यलक्ष्मी

विलास जी के बारे में जब मैं ने पहली बार घर में सुना तब मैं उन्नीस बरस की थी। एक छोटे कस्बे के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार की सबसे छोटी बेटी। तब मैं प्राईवेट बी ए फर्स्ट इयर कर रही थी। मैं ने सुना था कि वो बहुत अच्छे साईंटिस्ट हैं। भाभा इन्स्टीटयूट में बडे बडे साईन्टिस्ट्स के साथ काम करते हैं। अखबारों में उनका नाम आता। सब कहते कहां होते हैं राजपूतों में इतने ब्रिलियेन्ट लडक़े, वो तो खानदान का नाम ऊंचा कर रहे हैं। दीदीयों से उनके बारे में सुनती। बाऊजी भी उनकी बात करते। पर तब हममें से कोई नहीं जानता था कि उनकी मां ने मुझे पसंद किया है और यह बात बाऊजी ने सर आंखों पर रख ली है। दीदीयों ने हल्के स्वर में, बडे भैया ने जोरदार स्वरों में विरोध किया कि उनकी उम्र और मेरी उम्र में बहुत फर्क है। बीस साल का फर्क क्या कुछ नहीं होता?


“ बेटा लडक़ा है तो कुंवारा न। और हीरा है।” “लडक़ा! शादी शुदा होता तो इसके जितनी लडक़ी का पिता होता! ”

पर बाऊजी के आगे किसी की नहीं चली। जल्दी ही शहनाई बजी। मुझे दुख था तो इस बात का कि मुझे बी ए तो पूरा करने दिया होता। उम्र के फर्क को मैं समझ ही नहीं सकी, यूं भी सुन्दरता के लिये प्रसिध्द हमारे खानदान की ज्यादातर लडक़ियों की शादियां बेमेल सी ही हैं। फिर मुझे कम से कम उनका इतना एजूकेटेड होना अच्छा लगा था।

बहनों ने ही मुझे सजाया, सिल्क की राजपूती लहंगा और शिफॉन की चूंदडी पहन कर जब मैं ने आईने में देखा तब पहली बार आंख भर आई। गोरी पारदर्शी त्वचा और चमकीली आंखों से अभी बचपन गया ही कहां था। तभी बाऊजी आ गये थे। मैं फूट फूट कर रो पडी।

“ बाऊ जी जल्दी क्या थी, घर से विदा करने की?” “ बेटा, देखना तू अपना भाग्य सराहेगी, लडक़ा हीरा है। फिर तेरी उमर में तेरी सारी बडी बहनों की भी तो शादी हो गई थी।”

शादी के लिये ये लोग बॉम्बे से आए थे। बहुत कम लोग थे बारात में इनके मित्र और बहन और जीजाजी और मां तथा पास के कस्बे में बसे इनके ननिहाल के कुछ लोग। ये लोग जल्दी विवाह चाहते थे, पर बाऊजी के आग्रह पर शादी पूरी राजपूती परम्परा से तीन दिन तक हुई।यहां तक कि पुराने रावलों की परम्परा की तरह जोधपुर से आई नाचनेवालियों का मुजरा भी भी हुआ। मेरी बहनों ने खिडक़ियों में से घूंघट निकाल निकाल कर देखा और अपने अपने पतियों की नशे में की गई दिलफेंक हरकतों पर खूब हंसी। मुझे शर्म आ रही थी कि ये लोग बॉम्बे से आए हैं, जाने क्या सोच रहे होंगे कि हम लोग अब भी सामंतवादी परम्परायें निभाते हैं।

फेरे वाली रात मैं पूरे घूंघट में थी, मैं ने बस हथलेवे में बंधे इनके हाथ महसूस किये। मुझे दीदीयों की बातें याद आ गईं कि कैसे उनके पति हथलेवे के समय शरारत करके हाथ दबाते थे। पर इनका हाथ शांति से पूरे धैर्य से मेरा हाथ पकडे था। मुझे अनोखा लगा।

अगले दिन विदा होकर मैं इनके ननिहाल आ गई। बॉम्बे हमें तीन दिन बाद जाना था। इनके मित्र मुंहदिखाई की दावत के बाद चले गये। यहां भी सारी परम्परायें निभीं। चूडा खुला, वो परात में दूध डाल कर अंगूठी ढूंढने वाला खेल भी हुआ। इन्होंने तीनों बार अंगूठी खोज कर पानी में ही मुझे पकडा कर मुझे जिता दिया। यहां तक भी मैं उनका चेहरा नहीं देख सकी। रात ननद जी ने कहा कि तैयार हो जाओ। उन्होंने मेरा बक्सा खोला, उसमें सब भारी भारी राजपूती बेस थे।

“ भाभी नाईटी नहीं है?”

तब मैं शर्म से गड ग़ई। कौन लाता नाईटी? हाय इन्दौर वाली दीदी को कह दिया होता।

“ दीदी वो जल्दी में शादी” “ कोई बात नहीं।”

उन्होंने हल्का गुलाबी पतला सा नया राजपूती बेस निकाला जिस पर हल्का चांदी के तारों का काम था। उस पर लहरिये की ओढनी थी। पहना कर कहा,

“ विलास भाईसाब को ज्यादा ताम झाम पसंद नहीं। हमें ही टोक देते हैं।” “ ये गहने दीदी? “ “ ये तो कल पूजा के बाद हल्के करना बींदणी।” ये सास का आग्रह था।

मैं उलझन में थी। बडी नथ, टीका, बाजूबंद, गले में हार, करधनी,पाजेब! मैं पूरी लदी थी। दीदी ने मेरे लम्बे बालों की चोटी कर दी। सासू जी ने नजर उतारी। और दीदी और इनकी मामियों ने शरारतों, और बहुत सी नटखट बातों के साथ एक बडे से हालनुमा कमरे में छोड दिया जहां पुराना जहाज जितना बडा विक्टोरियन पलंग था, जिस पर फरवरी की ठण्ड में भी जूही और गुलाब के ठण्डे फूल बिछे थे। मुझे झुरझुरी आ गई। भारी फर्नीचर, भारी रेशमी परदे, पुराने फानूस, भारी किवाड। रावले की पूरी शान मौजूद थी इस कमरे में।

मेरी कल्पना के विपरीत ये पहले से ही कमरे में थे। घूंघट में से पहली बार इनकी लम्बी चौडी आकृति देखी। बाऊ जी की याद आगई।

“ बैठो मीनाक्षी!”

बहुत गंभीर भारी आवाज में पता नहीं क्या था आदेश या आग्रह। मैं हडबडा कर बैठ गई। फिर याद आया पैर तो छुए नहीं, आखिर इतने बडे हैं। मैं उठ कर झुकी।

“ मीनाक्षी, नहीं यह सब नहीं, तुम पत्नि हो अब मेरी और मेरे बराबर हो।

उन्होने उठा कर बिठा दिया जहाजनुमा पलंग पर।

ठोढी तक घूंघट अब भी था। इन्होंने उठा दिया। मैं झिझक रही थी सो पलकें नीचे किये धडक़ते दिल से बैठी रही। एक लम्बी खामोशीके साथ इनकी देर तक नजरें टिकी रही तो घबरा कर हटात् मेरी नजरें उठ गईं।ये एकटक मुझे देख रहे थे, किंकर्तव्यविमूढ से

“ क्या हुआ! ” मेरी आंखें यह प्रश्न पूछ बैठीं। “ हमसे ज्यादती हो गई मीनाक्षी। तुम तो बहुत बच्ची सी हो।”

मैं मुस्कुरा दी। कभी कहते हैं बराबर हो, कभी बच्ची। मेरी मुस्कान ने इन्हें आश्वस्त किया। उम्र के हिसाब से अब इतने बडे भी नहीं लगते! जितना दीदी भैया कहते थे। विशाल आंखें, चौडा तेजस्वी माथा, मोहक सांवला रंग। बस बाल ही थोडे क़म हैं।

अब इन्होने अपने बारे में बातें बताना शुरु किया। अपना पितृविहीन बचपन, पढने की ललक, उसी व्यस्तता में शादी न करने का प्रण और फिर माताजी की जिद, अपना क्षेत्र, अपने प्लान्स। मैं बहुत देर तक तो सुनती रही न जाने कब इनके कन्धों पर ही एक झपकी आ गई। मैं चौंक कर जागी। झेंपी झेंपी सी।

“ अरे इतने गहनों में कैसे सोओगी?” कहकर इन्होंने ओढनी सर से उतार दी।

सोने की क्लिप की चेन में गुंथी लम्बी चोटी को बडे धैर्य से खोला। मेरा दिल धक धक शोर मचा रहा था। गले के हार उतार दिये। करधनी खुली ही नहीं इनसे। मैं खोल कर अशालीन नहीं होना चाहती थी। उसे खोलने के चक्कर में ये मुझ पर झुक आए थे। उनकी पुरुषोचित गंध के नशे से मेरी आंखें मुंद गईं। अब ये मेरे सामने बैठे थे, मेरा हाथ थामे। मेरे मेंहदी रचे हाथों को गौर से देखते रहे फिर चूम लिया। और कहा,

“ मुझे लगता है विवाह न करने का प्रण तोड क़र मैं ने अच्छा किया मीनू। अब मैं पूर्ण महसूस कर रहा हूं। ये जो तुम्हारे हाथों की रेखाएं हैं ना मुझे बांध लाईं। मुझे थामे रखना।”

फिर मेरा हाथ चूमा तो मैं संकोच से सिहर गई। मेरी सिहरन उन्हें उकसा रही थी।

मेरा माथा चूम कर बोले,

“ मीनू, तुम मेरा भाग्य से जुड ग़ई हो आज से, अब मैं तुम्हारे भाग्य से जुड और ऊंचाइयों को छू सकूंगा। मां कहती है पत्नि भाग्यलक्ष्मी होती है।”

अब इन्होने तकिये का सहारा दे मुझे लिटा दिया। खुद मेरे पास कोहनियों पर टिक कर लेट गये। मेरा दिल उछल कर बाहर आने को था। कि इनके होंठों ने मेरे थरथराते होंठों को थाम लिया, एक गहरे चुम्बन के बाद कहा,

“ मीनू इन सुन्दर क्यूपिड की बो जैसे होंठों से मेरा नाम लो, लो न,कहो ना विलास! मेरे नाम को सार्थक कर दो।”

मेरे संकोच ने ऐसा करने ही नहीं दिया।

मेरे खुले केश तकिये पर बिखर गये, ये उन्हें उठा कर सूंघते रहे और अचानक मुझसे लिपट गए। मेरी सांसे कभी उखड रही थीं, कभी तेज हो रही थीं। जब इनके हाथ मेरी ट्रेडीशनल चोली की रेशमी गिरह खोल रहे थे तो मैं उनकी सासें अपनी पीठ पर महसूस कर रही थी। मुझे लगा अच्छा ही हुआ नाईटी नहीं थी।

इन्होने मेरे वक्ष पर हल्का चुम्बन कर कहा,

“मीनू मुझे अपने हृदय में हमेशा रखना, मैं बहुत व्यस्त व्यक्ति हूं,तुम्हारे पास होउं न होउं मुझे अपने मन में रखना।”

मैं ने पहली बार अपनी बांहें उठाईं और हल्के से इनके इर्द गिर्द डाल दीं।मेरे नदी से उतार चढावों में बह कर न जाने कब मुझे अपनी नाभि पर इनका चुम्बन महसूस हुआ और इन्होंने कहा,

“ मीनू, मैं शायद अगले महीने फ्रान्स चला जाऊं तीन साल के लिये एक प्रोजेक्ट में । और तुम्हें पास बुलाने में लगभग एक साल लग सकता है। क्या अपने गर्भ में मेरा और तुम्हारा नन्हा प्रतिरुप रख लोगी, और मिलने पर मुझे सौंप सकोगी?”

नये नये महीन तारों से इनके प्यार से जुडता मेरा मन कहीं टूटने लगा थापर इनके कसावों, चुम्बनों और स्नेहिल स्पर्शों ने पीडा को महसूस तक नहीं होने दिया, एक उत्तेजना में जल्द ही बिछडने की पीडा मानों कोई ट्रेक्वेलाईजर खा सो गई थी।

सारे आवरणों से मुक्त हम एक दूसरे को खोज रहे थे। करधनी अब भी यथास्थान थी, खुली ही नहीं।

एक अंतिम चुम्बन के साथ डूबते स्वरों में इन्होंने कहा,

“ अब न रह सकूंगा, अब तू मुझे अपने अस्तित्व में विलीन कर ले मीनू ।” करधनी के घुंघरु चौंक कर बज उठे थे। मैं पुकार उठी, “ विलास! विलास! विलास! इतने लम्बे अन्तराल में मेरे ये पहले शब्द थे।

हम प्रहरों साथ उफनते, बूंदों में बिखरते, बहते रहे एक झरने और नदी की तरह ।

आज भी वो पल याद करती हूं तो मीठे मादक सुख का अहसास होता है। हम तीन दिनों का संक्षिप्त मधुमास वहीं गांव में बिता, बॉम्बे आ गये थे। एक महीना मुश्किल से बीता था कि इन्हें फ्रान्स जाना पडा।प्रोजेक्ट की गोपनीयता और वहुत व्यस्त दिनचर्या के चलते ये मुझे लेने न आ सके एक साल बीत गया, मैं ने बी ए ही नहीं पूरा किया मैं नन्हें तेजस की मां भी बन गई। इनके प्रोजेक्ट की सफलता और महान उद्देश्य के बारे में टीवी पर सुनती, गर्व से भर जाती। ये समय मिलने पर फोन करते, कभी कभी लम्बा हिदायतों से भरा खत लिखते कि मुझे तेजस को मां के पास छोड क़र रैग्युलर एम ए की क्लासेज अटैण्ड भी करनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये। इन्हें किसी बडे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार के लिये नोमिनेट किया गया तब उन्होने फोन पर कहा,

“ मां की बात का पक्का विश्वास हो गया है कि पत्नि के भाग्य से जुड पति का भाग्य प्रखर होता है। मीनू तू भाग्यलक्ष्मी है।”

मुझे लगा हमारे भारतीय पुरुष विश्व में कहीं भी रह कर भी नितान्त भारतीय रहते हैं। उतने ही संस्कारी।

और अब तेजस का पहला जन्म दिन आने को है अगले सप्ताह और ये कल आ रहे हैं। मेरा दिल वैसे ही धडक़ रहा है, जैसा उस सौभाग्य से भरी पहली रात धडक़ा था। उनके पांच चुम्बन और उनके साथ कही पांच बातें याद आ रही हैं।

सारा घर सजा संवार कर, सारी सुन्दर नाईटीज छोड मैं ने बक्से में से वही राजपूती गुलाबी झीना बेस निकाला है। और अपनी हाथों की लकीरों को बार बार देख रही हूं। सच बाऊजी ने सच कहा था कि,

“ बेटा देखना तू अपना भाग्य सराहेगी।”

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