Madhumita

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प्रभा

छि... कितना कडुवा सा नाम है उसका। प्रभा जुबान पर नाम आते ही लोगों को मितली सी होने लगती है और वे आक थू करके पिच से थूक देते। बड़े-बूढ़ों की निस्तेज निगाहों में नफरत की बिजली कौंध जाती। किसी फास्ट टे्रन की तरह जब वह जूतियां खटखटाते गुजरती तो औरतों के झुण्ड जुड़ जाते और खुसुर-पुसुर होने लग जाती।

नाम के अनुरूप ही उसने सुन्दर स्वस्थ शरीर पाया है। चम्पई रंग, तीखे नाक नक्श, हिरणी सी गोल-गोल टपोर आँखें, मदमस्त हथनी की सी चाल, कमर तक लहराते केश कुन्तल। उसे देखते ही आँखें थोड़ी देर के लिए हरकतें करना बंद कर देतीं। ऐसा लगता, कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो। सुन्दर शरीर के साथ ही वह मेधावी भी रही है। फिर ऐसा कौन सा अपराध उससे हो गया कि लोग वितृष्णा से मुंह मोडऩे लगे हैं।

आँगन में दो चार औरतों के बीच बैठी माँ बतिया रही थी। शायद वह उसी के बारे में फुसफुसा (चर्चा) रही थी। मेरा अपना ध्यान किताब पर कम, बातों में अधिक केंद्रित था। फिर भी बातों का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था। मैं भी जानना चाहता था कि आखिर बात है क्या।

किसी काम से वह बाहर निकली होगी और पास आता देख बातों का सैलाब थम सा गया। वे सभी उठ बैठीं और अपने-अपने घरों की ओर चल दीं। उसके पास से गुजरते ही वातावरण सुगंधित हो उठा। कोई प्यारा सा इत्र-वित्र लगाया होगा उसने।

रसोई पकाने में माँ जुटी हुई थी। मैं वहाँ जा पहुंचा। मैंने कारण जानना चाहा कि बस्ती के लोग क्यों नफरत करते हैं प्रभा से। पतीली में करछुली चलाते हुए माँ ने सिर्फ इतना भर बतलाया कि कई देवी देवताओं की मनौतियों के बाद पैदा हुई थी प्रभा। जब वह पैदा हुई थी तो उसके बाप ने अपनी हैसियत के अनुसार पूरी बस्ती में बूंदी के लड्ïडू बंटवाए थे और लगभग पूरे सप्ताह तक जश्न मनाया गया था। शुरू से ही वह मेधावी रही है। हमेशा वह अव्वल आती थी। बाद में उसे डॉक्टरी पढ़ाने उसके बाप ने शहर भेज दिया। घर से बाहर कदम रखते ही उसके पर निकल आए। तितली बनी डोलती रही होगी यहाँ-वहाँ। फिर किसी मनचले के चक्कर में फंस गई। हमल ठहर गया उसके। जब यह बात उसके रईस बाप पर खुली तो उसने कहर बरपा डाला।

वह यह भी नहीं चाहता था कि इतनी बड़ी बात उसकी देहरी लांघकर बाहर निकले। प्रभा भी बड़ी मस्सड़ निकली, लाख समझाने बुझाने के बाद भी वह उसकी दीवानी बनी घूमती फिर रही है। न लाज, न संकोच, न जमाने का भय, ऐसा एक भी केस अपने गाँव तो क्या, आसपास भी नहीं घटा, निर्लज्ज बेशर्म छिनाल और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही माँ। हमल निर्लज्ज, छिनाल और भी तरह-तरह के नये-नये शब्दों के अर्थ मेरी समझ में बिल्कुल ही नहीं आ रहे थे। जब मैंने इनके अर्थ जानने चाहे तो बिफर पड़ी माँ। और बुरी तरह से डांटते हुए उन्होंने कहा— ‘तेरी समझ में कुछ नहीं आवेगा लल्ला, जा अपना खेल खेल।’ रसोई घर से बाहर निकल जाना ही श्रेयस्कर समझा था मैंने।

दो चार दिनों बाद एक मर्सडीज कार उनके घर के सामने आकर रुकी। एक सूटेड-बूटेड व्यक्ति बाहर निकला और जूते खटखटाते वह अंदर चला गया। वह आदमी क्या आया, एक भूचाल लेकर आया, मालूम पड़ता है शायद यही व्यक्ति होगा जिसको लेकर बस्ती में उत्तेजना का माहौल गरमा रहा था।

उनके बंगले की सभी खिड़कियां-दरवाजे पूरी तरह से बंद थे। सिर्फ बल्ब जगमगा रहे थे। अंदर क्या बात हो रही थी ये तो किसी को भी मालूम नहीं पड़ रहा था। आजू-बाजू वाले घरों में निपट अंधियारा छाया हुआ था। पर लोग जाग रहे थे और खिडक़ी दरवाजों की ओर से अपने कान और आँख खोले, भेद जानने के लिए उतावले से हो रहे थे। प्रभा के बाप का दबदबा इतना अधिक था कि लोग कभी उसके सामने पड़ते ही पत्ते की तरह कांपने लग जाते थे। शायद यही कारण था कि लोग अपने-अपने दड़बों में दुबक गए थे।

एक तेज धमाके की गंूज सुनाई दी। शायद किसी ने गोली दाग दी होगी। होनी-अनहोनी के अज्ञात भय के चलते सभी की साँसें पल भर को तो थम-सी ही गई होंगी। तभी भरभराते हुए दरवाजा खुला। दोनों बाहर आए। बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में समा गए। गाड़ी स्टार्ट हुई और सरसराते हुए तेजी से आँखों से ओझल हो गई। एक अजीब सा सन्नाटा छा गया था बस्ती में। तभी एक मरियल सा कुत्ता रिरियाने लगा था।

उस दिन के बाद से ऐसा लगा जैसा पूरी बस्ती को साँप सूंघ गया हो। ऐसी अप्रिय घटना इस इलाके में शायद पहली बार घटित हुई थी।

इस घटना के बाद से कई दिनों तक बस्ती का मिजाज उबलता रहा। जब भी मैं रवि के यहाँ जाता ऐसा लगता जैसे उदासी ने, खीझ ने, वहाँ अपना स्थायी डेरा जमा लिया हो। वह भी गुमसुम-सा रहने लगा था। खेल-खेलने अथवा घूमने-फिरने की बात मैं कहता तो वह टाल जाता। उसके बाबूजी तो जैसे बुझ ही गए थे। हालांकि उसके और हमारे परिवार के बीच काफी घनिष्ठता थी। बाबूजी और पिताजी के बीच गहरी छनती भी थी। पिताजी ने भी लाख समझाने-बुझाने की कोशिश की थी। पर उनका उद्विग्न मन शांत नहीं हो पाया था। मौसी तो हरदम रोती ही रहती थी। माँ ने भी उनको लाख समझाने की बात की पर पश्चाताप अथवा आत्मग्लानि की धधकती आग ठंडी नहीं हो पाई थी। उनकी ये हालात देखकर माँ-पिताजी भी कम चिन्तित नहीं थे। पर होनी-अनहोनी को रोक पाना शायद उनके भी बस की बात नहीं थी।

माँ और पिताजी बैठे बतिया रहे थे। माँ ने प्रभा को लेकर फिर बात छेड़ दी। कलमुंही हमारे सबके मुंह पर कालिख पोतकर चल दी। पैदा होते ही मर जाती तो ये दिन न देखने पड़ते। माँ का इतना कहना ही था कि पिताजी क्रोध में भडक़ उठे, “क्या बात करती हो बबलू की माँ, कहीं तेरी भी मति तो नहीं मारी गयी है। क्या गलत काम किया है उस बेचारी ने। यही न! कि उसने अपनी पसंद का दूल्हा चुन लिया। अपनी मर्जी से शादी करने का फैसला कर लिया। उसने जो भी किया अच्छा ही किया है।”

“अच्छा, तो तुम भी उसकी तरफदारी करने लगे। उसने समाज के बंधन को तोड़ा, कुल परम्पराओं का गला घोंट डाला, ऊंच-नीच, जात-पात का जरा भी ध्यान नहीं आया उसको। न जाने उसने क्रिश्चियन से शादी कर ली या किसी मुसलमान से, ऐसा करते समय उसकी रूह नहीं कांपी और तुम हो कि उसकी तरफदारी किए जा रहे हो। तुम्हें अपने दोस्त का पक्ष लेना चाहिए कि उस कुलच्छनि का।” माँ की तो साँस ही फूल आई थी और चेहरा तमतमा आया था।

“अरे हरिया इतना बुझदिल और मूर्ख है तो क्या उसकी बात सुन लेनी चाहिए। उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहना चाहिए। बातें तो बड़ी-बड़ी करता है- सब कोरी बकवास। जब सही और गलत में अंतर नहीं कर पाया तो उसे क्या मैं विद्वान कहूं, उसकी आरती उतारूं। बड़ा प्रोग्रेसिव बनता फिरता था। तो फिर काहे को पढ़ाया लिखाया लडक़ी को। जब उसे अच्छी तरह मालूम था कि उसकी बिरादरी में पढ़े लिखे लडक़े मिलेंगे नहीं, तो क्या जोतडूओं से शादी करवाता।”

“आज प्रभा पढ़ लिखकर डॉक्टर बन गई है। उसे कम से कम उसके जोड़ का लडक़ा तो चाहिए न! उसने अपने साथ के पढऩे वाले लडक़े को अपना जीवन साथी बना लिया तो क्या गलत किया बेचारी ने। जात-पाँत की बात, क्रिश्चियन रहा हो अथवा मियां-अछूत हो अथवा आदिवासी रहा हो, है तो आदमी का ही बच्चा न! अरे भागवान आदमी और औरत भगवान ने ही बनाए हैं— सब एक जैसे, सबके हाथ पैर मुंह एक से ही हैं न! उसने तो आदमी पैदा किए थे। बाद में हमने अपनी इच्छा से, अपनी मर्जी से जात-पाँत की दीवारें खड़ी कीं। भई मैं उस लडक़ी की तारीफ ही करूंगा और डंके की चोट पर कहूंगा कि उसने जो निर्णय लिया ठीक ही लिया। उसकी बाप की जगह मैं होता तो इतना बड़ा बखेड़ा कभी पैदा ही न होने देता।” इतना सारा एक बार में कहकर पिताजी कुर्सी से उठ गए और दनदनाते हुए कदमों से बाहर निकल गए।

माँ के चेहरे पर छाए विषाद के बादल अब छंटते से नजर आ रहे थे। पिताजी के शब्दों से शायद अब वो सहमत सी होती नजर आ रही थी। किस बात को लेकर बस्ती में सुगबुगाहट थी, अब वह मेरी समझ में अच्छी तरह आ रहा था।

इस घटना को बीते लगभग पूरा साल हो चुका था। प्रभा ने परिवार से अब भी नाता नहीं तोड़ा था। वह बराबर नियमित रूप से पत्र लिखती। पत्र उसके बाबूजी के नाम तो पिताजी के नाम पर भी आते रहते थे। रवि के बाबूजी तो पत्र पाते ही चिन्दी-चिन्दी कर देते पर पिताजी उसे बड़ी हिफाजत से सम्हालकर अपने पास रखते।

एक लंबे अरसे के बाद उसका पत्र आया। पत्र में लिखा था कि वे भारत छोडक़र अमेरिका जा रहे हैं। पिताजी को यह पढक़र अच्छा नहीं लगा। पर वे उसके लिए निर्णय पर पाबंदी तो नहीं लगा सकते थे। उन्होंने यह बात गुप्त रखी और नियत समय पर वहाँ जा पहुंचे। जहाज छूटने में थोड़ा समय था। प्रभा से उनकी हवाई अड्डे पर भेंट भी हुई। वे इस बात पर खुश थे कि वे अमेरिका जा रहे हैं पर इस बात पर उन्होंने अफसोस ही जाहिर किया कि वे देश छोडक़र ही जा रहे हैं। उन्होंने अपनी ओर से भरपूर समझाईश भी देने की कोशिश की थी पर उसके मिस्टर नहीं माने। आधे मन से उन्होंने दोनों को विदाई दी।

कुछ दिनों बाद उसका पत्र आया। लिखा कि यहाँ भारतीय डॉक्टरों की अच्छी माँग है। मुंह माँगा पैसा मिलता है। दोनों इतने बिजी हैं कि बस अपने लिए भी समय ही नहीं निकल पाता। धन-दौलत का जखीरा इकट्ठा करने में ये बच्चे अपनी भारतीयता न खो दें। इस बात का भय हमेशा पिताजी को बना रहता था।

शाम का धुंधलका कुछ गहराता जा रहा था तभी एक मारुति घर के सामने रुकी। कौन हो सकता है? एक प्रश्न मन के किसी कोने में आकर चुपचाप खड़ा हो गया। उतरने वाली में और कोई नहीं प्रभा ही थी। उसके मिस्टर भी साथ ही थे। प्रभा की गोद में एक बच्चा भी झूल रहा था। पिताजी आगे बढ़े। वे कुछ कहना ही चाह रहे होंगे, शब्द गले में ही फंसे रह गये, तब तक दोनों ने झुककर उनके चरण स्पर्श कर डाले। उन्होंने उठाकर दोनों को बाहों में भर लेना चाहा। पर गोद में बच्चा देखकर उनके हाथ अनायास ही उस बच्चे की ओर मुड़ गए। शायद धुंधलके में उनकी नजर पड़ नहीं पाई होगी। बच्चे को गोद में लेकर वे भी बाल-सुलभ हरकतें करने लगे। तब तक माँ भी बाहर निकल आई थी। प्रभा की नजर अब मेरी ओर मुड़ी और तपाक्ï से उसने कहा, ‘कितना बड़ा हो गया है रे तू ...’। ‘दीदी’ कहकर मैं उससे लिपट गया था। जब वे इत्मीनान से बैठ गई तो मैंने चहककर पूछा, ‘दीदी क्या सचमुच इन डेढ़- दो साल में मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि पहचान ही नहीं पाई।’ तो जानते हो उसने एक ही बात बड़ी गहराई से की थी, ‘हाँ सचमुच इतने कम समय में ऐसा लग रहा है जैसे एक युग ही बीत गया हो।’

सोफे पर बैठी जब वह चाय सुड़-सुड़ा रही थी तभी पिताजी ने कुछ कडक़दार आवाज में कहा, ‘बेटा बुरा न मानना। ये भी तेरा घर है। इसे पराया न समझना पर तुझे सीधे अपने घर पर उतरना चाहिए था। क्या सोचेगा हरिया ...।’ फिर उनके शब्द अंदर गले में ही फंसे रह गए।

“काका, यहाँ-वहाँ में क्या फर्क पड़ता है। शरीर भले ही उस घर में पैदा हुआ हो पर मन तो यहाँ पला-बढ़ा है। शरीर उन्होंने दिया है, आवाज तो आपने ही दी है। वहाँ भी चली जाऊंगी लेकिन बाद में।” बाद में उसके एक-एक शब्द जैसे चाशनी में पगे हुए थे। पिताजी से कुछ और बोला नहीं जा सका। उनकी आँखों से झर रहे आँसुओं की लड़ी ने कितना कुछ कह डाला था, बस यही पर्याप्त था।

हाथ भर के छोटू के लिए, माँ अभिभूत हुए जा रही थी। वे उसमें इतनी मगन हो गई थी कि शायद ही उन्होंने हमारा वार्तालाप ध्यान से सुना होगा। आगे बढक़र जब मैंने उसे अपनी गोद में उठाने का प्रयास किया तो माँ ने कहा- जरा सम्हाल के। वह छोटा सा शिशु मेरी बाँहों में झूल रहा था। एकदम गोरा-फट्ट गोल-गोल बिल्लौरी सी आँखें, कपास भरे खिलौने की तरह नरम-नरम। किसी बच्चे को गोद में खिलाने का यह प्रथम अवसर था मेरे लिए। बड़ा अच्छा सा लग रहा था। देर रात तक गये, देश विदेश की चर्चाएँ होती रहीं।

दूसरे दिन सुबह जब हम सभी रवि के यहाँ गए। प्रभा को वापिस आया देख रवि और उसकी माँ यानि मौसी कुछ ज्यादा ही खुश एवं उत्साहित से लगे। बाबूजी अब तक बुझे-बुझे से नजर आ रहे थे। उनके अपने अंदर उग आए केक्टस तो शायद अब तक सूख चुके थे फिर भी तेज धारदार-कंटीले गुच्छे नजर आ रहे थे। वे किसी और को नहीं बल्कि उन्हें अंदर ही अंदर लहूलुहान किए जा रहे थे। प्रभा को देख एक हल्की- सी फीकी-सी मुस्कराहट का दीया उनके ओठों पर टिमटिमाया था जो जल्दी बुझ भी गया। कल तक जो प्रभा पर अपनी जान छिडक़ते थे आज अबोला से खड़े किसी अबोध बच्चे की तरह टुकुर-टुकुर देख रहे थे। प्रभा ने आगे बढक़र उस नन्हीं-सी जान को उनकी गोदी में डाल दिया। और अंदर कमरे में चली गई जहाँ माँ बैठी उसका इंतजार कर रही थी।

दिलों के ऊपर तक जमी सख्त बर्फ अब गलने सी लगी थी। कपड़े, गहने और न जाने क्या-क्या वह अपने साथ लाई थी। सभी में बाँटने में व्यस्त हो गई। एक लंबे अर्से के बाद अब माहौल में परिवर्तन सा आता उसे दिखलाई पडऩे लगा था।

चार छह दिन रहकर वह लौट गई। उसके लौट जाने के बाद एक रिक्तता थी, एक शून्य की-सी स्थिति काफी दिनों तक बनी रही।

उसके पत्र तो आते पर उनमें एक लंबा अंतराल रहता। महीने, छ: महीने फिर साल-साल भर बाद पत्र का जवाब देती। बीच में उसका एक पत्र आया जिसमें उसने अपनी कथा-व्यथा को ज्यादा ही विस्तार दिया था। लिखा था कि वह अब पहले से ज्यादा व्यस्त रहती है। अत: उसने जिमी को एक हॉस्टल में दाखिला दिला दिया है। पहले वे दोनों प्रतिदिन मिलने जाया करते थे, फिर एकाध सप्ताह बाद जा पाते, अब तो महीनों जाना नसीब नहीं होता। फोन पर ही हाय-हेलो हो जाती है।

साल-सवा साल बाद जॉन पैदा हुआ। समय की उसके पास सचमुच में कमी थी। उसने उसे भी आया के जिम्मे टिका दिया। बाद में वह भी हॉस्टल पहुंचा दिया गया। बड़ी सुबह से देर रात तक पति-पत्नी दोनों अति व्यस्त रहते। अब तो नौबत यहाँ तक आ गई थी कि उनके बीच में मिलने-जुलने के लिए समय का अभाव था।

लौटते समय उसकी नजर मंदिर एवं मस्जिद पर भी पड़ी थी जो वर्षों से मरम्मत के लिए इंतजार कर रही थी। उनके रखरखाव व मरम्मत के लिए वह बिना नागा रकम भेजती रही। सारा पैसा चाचा के मार्फत खर्च होता, लोग उनसे कुछ पूछते भी तो वे चुप्पी लगा जाते। गाँव के बीच से बहती थी एक नदी। नदी के पाटों पर बने पक्के घाट कभी के चूरा हो गए थे, उसी की मदद से नए घाट बना दिए गए। पैसा कहाँ से आ रहा है, कौन खर्च कर रहा है— यह बात अभी तक किसी पर उजागर नहीं हो पाई थी। जब इस बात का पता लोगों को लगा तो उन्हें आश्चर्य जरूर हुआ। बिना किसी बात को सोचे समझे उन्होंने उसके बारे में जो कुछ भी कहा उन्हें आज अपने आप पर क्रोध आ रहा था। धीरे-धीरे ये बातें सभी पर उजागर हो गईं। प्रभा का नाम लेते ही जो कभी पिच्च से थूक दिया करते थे, आज वे उसका गुणगान करने लगे।

कुछ दिनों बाद एक बड़ा भूभाग खरीदा गया। करोड़ों की लागत से स्कूल तथा अस्पताल की इमारत आकार लेने लगी। जब स्कूल का नाम रखने की बात सामने आई तो सर्व-सम्मति से उस स्कूल का नाम प्रभा निकेतन हाई स्कूल रखा गया और अस्पताल का नाम आनंद निकेतन। आसपास के गाँवों के बच्चों को पढऩे के लिए अब दूर जाने की कतई आवश्यकता नहीं थी और न ही इलाज के लिए किसी दूरदराज के शहर की ओर।

करीब सत्रह-अठारह साल के बाद प्रभा और आनंद अपने गाँव लौट आए सदा-सदा के लिए, कभी वापिस न होने के लिए। जब वे वापिस लौट रहे थे तो उनकी अगवानी के लिए पूरे गाँव के साथ ही आसपास के गाँवों के जन भी इकट्ठा हो आए थे। जगह-जगह बंदनवार सजाए गए थे, बड़े-बड़े गेट लगाए गए थे। ढोल-ढमाके शहनाइयां माहौल में एक नया जोश भर रहे थे।

एक नियत समय पर, आकाश में चमचमाता हेलीकाप्टर दिखलाई पड़ा। जहाज को आसमान पर तैरता देख तुमुल ध्वनि से जयघोष होने लगा। अब जहाज धरती पर उतर आया था। उठती हुई गुबार धीरे-धीरे शांत होती जा रही थी। उसके डैने अब भी हवा में चक्करघिन्नी काट रहे थे। पति-पत्नी जब यान से बाहर आए तो उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया गया। एक होड़ सी लग गई थी गलहार पहनाने में।

हेलीपेड के पास ही एक विशाल शामियाने में भारी भरकम स्टेज भी बनवाया गया था जहाँ आज उनका हाॢदक अभिनंदन किया जाना था। प्रदेश के मंत्री, आला दर्जे के अफसर सभी इस जश्न में शिरकत कर रहे थे।

वे पंक्तिबद्ध मानव-शृंखला के बीच से गुजरते जा रहे थे और लोग उन पर फूल बरसा रहे थे। वाद्य यंत्र अपनी सुरीली धुन निकाल रहे थे। वहीं नर्तक दल झूम-झूम कर माहौल को मदमस्त किए जा रहे थे। पूरे प्रोग्राम का संचालन रवि के हाथ में था। जब सारे लोग बोल चुके तो उसने माईक पर अपनी दीदी प्रभा को सादर बुलाया। जब वह अपनी सीट से उठकर माईक की ओर बढ़ी तो तालियों की गडग़ड़ाहट के साथ आसमान भी थरथरा उठा। प्राय: हर वक्ता ने अपने उद्ïबोधन में उनके बच्चों का विशेष रूप से उल्लेख किया, कारण जानना भी चाहा कि वे उनके साथ क्यों नहीं आए।

प्रभा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- ‘भाईयों और बहनों, मैं आज पुन: आप सभी के बीच वापिस हो गई हूं सदा-सदा के लिए, कभी वापिस न होने के लिए। मुझे ये नश्वर शरीर मेरे पिताश्री हरिनाथ सिंह एवं माता पार्वती ने दिया है पर वाणी मुझे मेरे पिता तुल्य चाचा श्री जगदीश्वर सिंह ने दी है। ममता क्या चीज होती है, देश प्रेम क्या होता है, इसकी घुट्टी मेरे चाचा ने मुझे पिलाई है। इनकी मैं जन्म-जन्मांतर तक ऋणी रहूंगी। आप लोगों के पास भी बहुत कुछ था, जो आपके पास था वह आपने दिया। और मैंने जो पाया वह भी आप सभी के बीच मैंने बिना किसी स्वार्थ के बाँट दिया है।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे चाचाजी ने मुझे चेतावनी दी थी कि या कह लीजिए कि सीख दी थी कि बच्चों की परवरिश एक भारतीय माँ की तरह करूं। उन्हें अपने कलेजे से चिपकाए हुए उन्हें अपना दूध पिलाऊं। उन्हें भारतीयता का जामा पहनाऊं। पर बड़े दुख के साथ मुझे कहना पड़ रहा है कि मैं इस परीक्षा में पास नहीं हो पाई। मैं अपना धर्म नहीं निभा पाई। धन प्राप्त करने की लिप्सा ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया। मैंने उन्हें विलायती हाथों में सौंप दिया जहाँ उनका लालन-पोषण भारतीयता की बजाय विदेशी ढंग से होने लगा। मैंने उन्हें अपने सीने से चिपकाने की बजाय दूर रखा और उसका नतीजा यह हुआ कि वे मुझसे दूर-दूर होते चले गए। काश यदि मैं उन्हें अपनी ऊष्मा दे पाती तो शायद ऐसा कदापि नहीं होता। वे दोनों उस माहौल में पल बढक़र उन्हीं के रंग में ढल गए हैं। उनका नहीं मेरा अपना ही दोष है, जिसे स्वीकार करने में मुझे जरा भी हिचक महसूस नहीं हो रही है।

जब मैंने उन्हें साथ चलने को कहा तो उन्होंने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया कि वे वहाँ न जा सकेंगे। चूंकि मेरी मिट्टी इसी माटी में मिलने को बेताब हो रही थी अत: मुझे वापिस होना ही पड़ा। मुझे अपने बच्चों पर आज भी विश्वास है कि वे जरूर लौटेंगे अपने वतन में। आज नहीं तो कल उन्हें आना ही पड़ेगा।’ कहते-कहते वह फफक कर रो पड़ती है।

तभी आसमान में एक यान चक्करघिन्नी काटता हुआ दिखलाई पड़ा और अब वह जमीन की ओर उतर रहा था।

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