Madhumita

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पल्लव

पल्लव रूक कर पीछे देखने का भी अवकाश कहां है तेरे पास? उठा अपने ये खण्ड, जोड ले किसी तरह स्वयं को । प्रतिवाद करने का अब समय नही रहा। खैर जान कि रास्ते बीहड ज़रूर हैं। जुटा अपनी बची खुची शक्ति और बढा ले कदम शेष जीवन के अनजाने, रहस्यमय रास्तों की तरफ।

पल्लव अनमनी सी बैठी रही अपने हाथों से सहेजे घर की टूटते टूटते बची देहरी पर । शिशिर की उंगली पकड क़र चला आया पतझड सारे बाग को सूखे पत्तों से ढक गया था, पल्लव का मन कभी एक-एक कर टूटती पुलक के ढेर से अटा था। कितनी कितनी स्मृतियों के कसते जाल । इतनी खिन्नता कि एक पल तो उसे विश्वास हो गया कि यही उसके मन का स्थायी भाव है।

“पल्लव, यहां क्यों बैठी हो, इतनी ठण्ड में ?” अजित अपना ब्रीफकेस गार्डन चेयर पर रख कर सीधे वही चले आऐ । पल्लव ने चेहरा उठाया,बिंधी सी दृष्टि, खिंचा सा भाव, टूटी मुस्कान ।

“क्या हुआ, ऐसी क्यों हो रही हो ?” सशंक हो अजित ने पूछा। ”

“नहीं , कुछ भी नही। चाय बना दूं ? स्वयं को सहेज कर पल्लव उठी।

“रहने दो, अभी ही तो ऑफिस में पी थी। सच कहो क्या हुआ है ? “अजित ने फिर पूछा।

“कहा न कुछ नही, थक गई हूं। ”

“अभी लौटी हो ?”

“चार बजे लौट आयी थी। ”

और ज्यादा न अजित ने पूछा न पल्लव ने कुछ कहा। अजित कपडे बदलने चले गए तो पल्लव यंत्रवत रसोई में चली आई। अजित कपडे बदल कर अखबार ले कर बैठ गये। बच्चे अपना अपना होमवर्क पूरा कर खेलने भाग गए। अपने लिये एक प्याला चाय लिये वह डायनिंग टेबल पर आ बैठी।

सबंध हर थोडे अंतराल के बाद ऐसे ही बदलते है और फिर बदलती है सबंधों की भाषा। ऐसा क्यों है कि कुल मिला कर स्त्री पुरूष की भाषा ही तमाम दुनिया की भाषा है, जो उनके सबंधों के मुताबिक बदलती रहती है। एक समय ऐसा भी तो आता है जब दोनों इस बदलती भाषा को समझने से इन्कार कर देते हैं और तब भाषा आत्मालाप में बदल जाती हैं, फिर रह जाती है आत्मयंत्रणाएं।

आज अगर अजित ने थोडा सा उसका मन छू कर पूछा होता तो वह सब कुछ स्वीकार कर लेती। किन्तु स्वयं को स्वीकार कर दूसरे को लगातार अस्वीकार करते जाना ही दाम्पत्य की सबसे बडी विडम्बना है। अजित के छिटपुट फ्लर्ट वह अब तक सहजता से स्वीकार करती आई थी, पर वह जानती थी कि अजित इसे आत्मसात न कर पाता। सशंक था वह पर कभी स्पष्टतः उसने कुछा कहा नही। यही तो यंत्रणा थी कि हम दोनों एक दूसरे को न स्वीकार कर सके न अस्वीकार, दोनों के बीच एक निशब्द छटपटाहट थी। सच तो यह है कि जैसे जैसे हम अपनी अनैतिकाताएं स्वीकार करते जाते हैं, वैसे वैसे दूसरों को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पाते है।

“यूं तो प्रेम की कोई नैतिकता नही, मगर प्रेम ही सबसे बडा नैतिक अनुभव है। इसकी नैतिक अनैतिक परिणति कुछ भी नहीं,” इसके आगे कहते रहे थे तुम अंत तक । तुम्हारे ही दुःस्साहसों की राहू केतु सी छाया ने ग्रस लिया था पल्लव का विवेक।

“सर मैं चाहता हूं पल्लव भी मॉरिशस जाए मेरे साथ। इलाहाबाद में जो...

पर इसने जो पेपर पढा था वह अद्भुत था। वैसी व्याख्या तो आप और हम भी नहीं कर पाते। ”

“परितोष ! अगर मेरे कान ठीक सुन रहे है तो मैं यही कहूंगा कि यह बचपना है। वहां देश-विदेश के प्रबुध्द साहित्यकारों, आलोचकों के बीच पल्लव क्या करेगी? वहां जानता ही कौन है उसे? पल्लव को उस मुकाम तक पहुंचने के लिये अभी लम्बा संघर्ष करना है। मैं स्वयं को तुम्हारे स्तर का साहित्यकार -समालोचक नही मानता तो पल्लव तो मेरी भी शिष्या है। परितोष निमंत्रण तुम्हारे लिये है। ”

“सर मैं अभी तो यही कह रही थी परितोष परितोष सर से...” पल्लव गिरने से थोडा पहले हवा के थपेडों से कांपने वाले पात सी सिहर रही थी। परितोष का दुराग्रह प्रोफेसर शलभ के समक्ष फन उठाए खडा था। पल्लव के क्षीण स्वर वातावरण की तिक्तता में कही खो कर रह गए। प्रोफेसर शलभ हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष ही नही आर्ट फैकल्टी के डीन भी थे, और पल्लव ही नही, परितोष भी उनके शिष्य रह चुके है।

सदा शांत, संतुलित रहने वाले शलभ सर तमतमा गए, स्वयं को संभालते हुए बोले, “परितोष, तुम मेरे छात्र भी रहे हो और सहकर्मी हो,पल्लव मेरी एक रिसर्च-स्कॉलर। तुम दोनों ही समान रूप से प्रिय हो मुझे। इलाहाबाद से लौटते हुए थोडा सशंकित था पर तब लगा कि नहीं, तुम प्रबुध्द हो और पल्लव समझदार गृहिणी। बस वही चूक हो गई अन्यथा आज तुम इस विनाशकारी दुराग्रह को लिए मेरे समक्ष न खडे होते। ”

परितोष न जाने किस जिद में उठ कर चले आए। वह भी थोडी देर हतप्रभ सी बैठी रही फिर अपने बिखरे अध्याय उठा कर चली आई। अगले ही दिन पल्लव शलभ सर के ऑफिस में जा कर आई, “सर मेरी कोई रूचि नहीं है मॉरिशस जाने में, मेरी थीसिस का अंतिम अध्याय चल रहा है, जल्दी ही सबमिट करवा दूंगी, आप वायवा की डेट फिक्स करवा दें। ”

परितोष सर जानती हूं माफ नही करोगे मुझे किन्तु अपराध था भी क्या मेरा? जहां तुम्हारे अतीव आकर्षण की लहरें महाजलराशि में डुबो जाती वहीं दूसरे ही पल नैतिकता, समाज, दाम्पत्य की लहरें ला पटकती सूखी रेत पर, मैं थक गई थी, मेरा साहस चुक गया था। व्यवहारिक तुला पर तुम्हारे मेरे आकर्षण जनित अलौकिक सम्बंध के आगे समाज, पति, बच्चों का पलडा बहुत भारी हो गया था। हमारे असंख्यों स्वप्न मात्र रूई के फाहे थे और परिवार, समाज लोहे के मोटे-मोटे बांट थे।

तुम न भी आते तो क्या था, मैं तो जी ही रही थी ना उसी एकरस लीक पर। पति के बनाए सुरक्षित घेरों में घिरी-सी, जहां वे जाते मैं भी जाती, वह व्यस्त रहते, मैं बच्चे पालती। कभी एकाकीपन से घबरा बाहर जा बैठती, बाहर के सन्नटों से उचट अंदर आकर प्रतीक्षा विषय पर कविता लिखती। तुमने आकर क्यों लीक मिटाई, क्यों अजित के एकाधिकार का घेरा तोडा?

ऐसा ही घुटा-घुटा सा दिन था वह । प्रोफेसर शलभ ने लाइब्रेरी में चपरासी भेज बुला लिया था उसे। प्रोफेसर शलभ और परितोष सर इलाहाबाद एक साहित्यिक कार्यशाला में आमंत्रित थे और उसके शोधप्रबंध के कुछ अध्याय वैसी ही एक साहित्यिक चर्चा के विषय के अन्तर्गत आते थे। शलभ सर ने उसे अवसर देना चाहा।

पल्लव अब तक हिन्दी में शोध करने वाले अपने विद्यार्थियों में विषय के प्रति इतनी गंभीरता व तन्मयता नहीं देखी मैंने। हिन्दी विषय अब हर विषय में डूबते विद्यार्थी को पार लगाने वाला विषय मात्र रह गया है और पी एच डी लेक्चररशिप तक पहुंचने की बैसाखी।

प्रितोष के बाद यह लगन मैने तुममें देखी। देखो न, परितोष ने तो अंग्रेजी में एम ए किया और गोल्ड मैडल मिला उसे, चाहता तो अंग्रजी में ही पी एच डी करता पर साहित्य मात्र के प्रति लगाव ने उसे हिन्दी की ओर उन्मुख किया। उसने दुबारा एम ए किया, हिन्दी में पी एच डी की, फिर यूरोप जा कर पाश्चात्य एवं भारतीय समीक्षा के तुलनात्मक अथ्ययन पर गहन शोध किया और डी लिट की उपाधि प्राप्त की। इस अभूतपूर्व योग्यता के बाद भी वह यायावर ही रहा फिर मैंने ही साग्रह उसे इस विश्वविद्यालय में एक पद संभालने को प्रेरित किया। पल्लव उसकी योग्यता मात्र शैक्षणिक नही, वह तो जन्मजात है। आज वह चालीस की उम्र में ही वरिष्ठ आलोचकों और सुलझे हुए रचनाकारों में गिना जाता है। ”

परितोष सर के प्रति श्रध्दा और बढ ग़ई थी। जाने कब बदला वह स्वरूप उस श्रध्दा का। पल्लव तूने कब चाहा था ऐसा। वही डिपार्टमेन्ट में कभी-कभी टकरा जाते थे। कभी शलभ सर के ऑफिस में तो कभी लाइब्ररी में, कभी उसके पूरे-अधूरे अध्याय उठा कर पढ लिया करते, कहते कुछ भी नहीं बस पढ क़र चल देते। जब मिलते उसके नमस्कार का उत्तर मर्मभेदी दृष्टि से देते और फिर निर्लिप्त भाव से सर हिला कर चल देते। वह थी ही कौन, एक तुच्छ रिसर्च स्कॉलर? कहां वो जाने माने आलोचक और तेज तर्रार विद्रोही कवि-कहानीकार। जब वह शलभ सर की अनुपस्थिति में एम ए की क्लास लेती तो रूक कर उसका व्याख्यान सुनते और विश्वविद्यालय की हिन्दी पत्रिका में उसकी एक रचना जरूर छापते, मगर अपनी कांट-छांट के बाद। रहते उतने ही वीतरागी, न प्रशंसा करते, न कुछ और ही कहते।

इलाहाबाद पहुंच कर, सेमिनार के पहले ही दिन, सुबह-सुबह पल्लव तैयार हो कर प्रोफेसर शलभ के कमरे का दरवाजा खटखटा चुकी थी। परितोष सर ने दरवाजा खोला, भूरे खादी के मुसे हुए कुर्ते और सफेद पैजामे में, उडते बिखरते बाल, बडी अर्धोन्मीलित गहरी भूरी पुतलियों वाली आंखो में लाल डोरे शायद अभी उठे होंगे ।

“शुभ प्रभात सर ” पल्लव मुस्कुरा कर बोली।

“हूं, आओ । शलभ सर अलस्सुबह अपने मित्रों से मिलने निकले हैं। तुम्हें काम था कोई? शुष्कता से पूछे इस प्रश्न का उत्तर भी पल्लव ने उत्साह से दिया।

“सर ये पेपर्स दिखाने थे ...जो आज मैं पढने जा रही हूं ”

“ठीक ही लिखा होगा, यूं भी शलभ सर को तो तुम पर हमेशा विश्वास रहा है। ”

ईष्या कर हल्का सा दंश वह झेल गई। किसी भी प्रतिक्रिया की अवहेलना करते हुए अब तक तो वे बाथरूम में थे। लौटे तो पूछा, “चाय पियोगी ?”

“नहीं सर, अभी पीकर ही निकली थी। ”

पूरी खुली आंखों से परितोष ने उसे देखा। हल्की नीली शिफॉन की साडीऔर बिना बाहों के ब्लाउज से बरगद की नई शाखाओं सी फूटती दो अनावृत भुजाऐं। नीली लहरों के बीच कहीं रेतीले कगारों सी ढरकती,सिमटती-खुलती देह का बहाव। पल्लव चौंकी थी, तप्त आंखों के दग्ध भाव पर किन्तु शीघ्र ही सहज हो कर बोली, “ सर क्या आप नही आएंगे सेमिनार में ?”

क्यों नहीं, शलभ सर तो सीधे सेमिनार हॉल में पहुंचेंगे। तुम नीचे लॉबी में प्रतीक्षा करो, मैं अभी आया, साथ ही चलेंगे। ”

पहली बार इतनी बात की होगी परितोष ने उसे थोडा सा अपने स्तर पर बैठा कर ।

पर्चा ठीक ही पढ ड़ाला था उसने, प्रोफेसर शलभ गर्वित भाव से बार-बार उसका परिचय अपनी शिष्या के रूप में करवाते रहे। प्रितोष वही भाव लिए डाइनिंग हॉल के कोनों से, लेखकों-समीक्षकों के झुण्ड में बतियाते,लंच के लिये प्लेट बढाते उसी ईष्या व आकर्षण मिश्रित दृष्टि से ताक लिया करते। लंच के बाद उसे अकेला पाकर पास आए।

“पल्लव यू आर सुपर्बली जीनियस। जितना भारी-भरकम विषय शलभ सर ने तुम्हें सुझाया था उसे उतने ही अधिकार से तुमने प्रस्तुत भी किया। ”

पहली बार उस वीतरागी ने उसके बारे में कुछ कहा था। प्रितोष, कैसी छल भरी भूमिका थी वह, जिसे सुनकर पुलक उठी थी वह? वही पुलक जो मीठा विष बन तन-मन में घुल गई थी।

शाम जब शलभ सर ने साथ साथ चाय पीने के लिये बुलाया तो, वह प्रसिध्द साहित्यकारों एवं तीन अंतरंग सखियों सी मगर अलग-अलग मिजाज वाली नदियों के संगम वाले शहर इलाहाबाद को घूमने निकल ही रही थी। एकदम पर्यटक सी लापरवाह वेशभूषा, कसी जीन्स, बातिक प्रिन्ट का जोगिया कुर्ता, सुघडता से कटे बालों को स्कार्फ से बांध वह सहज ही शलभ सर के कमरे में चली आई थी। प्रोफेसर शलभ कुछ रिपोर्टस लिख रहे थे। प्रितोष सुबह वाली ही मुसी पोशाक में तकिया बाहों में कसे, औंधे लेटे कुछ पढ रहे थे। उसकी आहट पर दोनों ने मुड क़र देखा, शलभ सर की आंखो में वात्सल्य उमडा, परितोष फिर असहज थे। शलभ सर से बाते करते हुए परितोष की आंखे उसकी पीठ पर आकर्षण उकेर रही थी। उसने एक बार मुड क़र देखा, तकिया बाहों में कसे उसी मर्म को कुरेदने वाले भाव से देख रहे थे, उसका हर स्पंदन, हर लय। आंखों में उन्माद के रोगी का सा भाव, समुद्र सी उफनती जलराशि। बात करते उसे व्यवधान हो रहा था, पीठ पर सरकती उस अटपटी दृष्टि से। हूं... ऐसे ही होते हैं ये बूढे होते कुवांरे...। ”

तीनों ने साथ चाय पी, थोडी साहित्य चर्चा हुई, फिर पल्लव इजाजत ले निकल पडी नगर भ्रमण को। कॉलेज छोडने के बाद अब ये स्वतंत्रता मिली थी कि वह अकेले निश्चिंत होकर घूमे, खरीदारी करे, खासतौर पर किताबें खरीद पाए। अजित ऊब जाते थे इस सब से । बच्चे शोर मचाने लगते थे। यही कुछ स्वतंत्र पल जी लेने को पल्लव ने अजित से जिद कर इलाहाबाद आने, संगोष्ठी में शामिल होने की अनुमति ले ही ली थी। मम्मी को मथुरा से बुलवा लिया था दोनों बच्चों की देखभाल के लिये।

पल्लव लौटी तो हाथों में ढेर से लिफाफे, किताबें, इलाहाबादी अमरूदों की डलिया । परितोष कॉरिडोर में खडे सिगरेट पी रहे थे, देखते ही आगे बढ क़र कुछ सामान ले लिया उसके हाथ से, पीछे-पीछे उसके कमरे में चले आए निशब्द ।

“थैंक्स सर... क्या आपने पूरी शाम यही बिताई अकेले? ओह हां शलभ सर तो अपने इलाहाबादी सहपाठियों से मिलने चले गए होंगे ना !” पल्लव सहज ही एक अच्छे परिचित की तरह बात कर रही थी। यही परितोष को भी भला लगा।

“हां , क्या करता बस एक कविता लिखी, तीन-चार सिगरेट पी, फिर कॉरीडोर में आकर लोगों का आवागमन देखता रहा। ” थोडी ही देर में दोनों टेरेस पर अमरूद खा रहे थे। एक अलग किस्म की स्वंछदता हवा में नमी की तरह घुल गई थी। हलका अंधेरा घिर आया था। पलाश,गुलमोहर, जैकेरेण्डा के पेडों की कतारें मानो स्याह सडक़ को रास्ता सुझा रही थी। पल्लव हवा में घुली नमी से, दृष्य से, उडाये लिये जाती स्वच्छंदता से बंधी जा रही थी। लगभग उसका सम्मोहन तोडते हुए ही परितोष ने कहा ”पल्लव तुम्हारे लेखों से बहुत अलग तुम्हारी कविताएं अकसर रोमान्स से लबालब होती हैं और बहुत वैयक्तिक

“सर इसीलिये तो छप कम ही पाती हैं। यूं भी लेखों, शोध पत्रों से अलग वो मेरी व्यक्तिगत अभिव्यक्तियां ही हैं। ”

“मैंने छापी हैं कॉलेज मैगजीन में मुझे पसन्द हैं मकई के कच्चे दूधिया दानों सी तुम्हारी अभिव्यक्तियां वो क्या पंक्तियां थी पल्लव जो पिछले साल छपी थी? पकते हुए गेहूं के खेतों से गुजर कर आई हूं मैं । ”

“आपको याद हैं ! अच्छा छोडिये, आप सुनाइये आज आपने क्या लिख डाला, आपकी तो हर रचना छपाऊ सामग्री होती है। ”

“ना ! आज जो भी लिखा है वो तुम्हारे शब्दों में सम्पादकों के परहेज क़ी सामग्री है, नितान्त वैयक्तिक। पढोगी ?

पल्लव छिपा गई अपना औत्सुक्य ।

“तू अनन्त राशि है सरस सौंदर्य की,

आकृष्ट हूं , आकांक्षित भी,

सच कहूं , याचक नहीं हूं,

भिक्षा नही मांगूंगा।

तेरे धर्म की परीक्षा नहीं लूंगा,

बलात तो तेरे महीन स्वप्न भी

न छू सकूंगा।

जिस पल तू आएगी

बदल अपनी दिशा,

अंजुरी भर पी लूंगा

और तृषित हो जाने को”

एक अधूरी, अस्तव्यस्त सी कविता.... फ़िर एक लम्बा मौन। सच बता पल्लव क्या तुझे जरा भी आभास नही था, ऐसे किसी आग्रह का ? आखिर स्त्री है, जानती थी वह निर्लिप्तता, उपेक्षा घोर आकर्षण की भूमिका मात्र थे।

“पल्लव क्या हुआ ?” एक सशंक प्रश्न जिसका उत्तर क्या देती वह? एक अज्ञात, गोपन संशय का आभास दानों के बीच थरथरता रहा।

“पल्लव ”सन्निपात के रोगी की सी भीतर से उठती आवाज।

“ ये कविता नहीं है, एक प्रश्न है मुझे प्रत्युत्तर चाहिये ही । ”

उस पल तो उस उन्मत आह्वान का कोई उत्तर न दे सकी पल्लव। परितोष ही घनीभूत हो आये सन्नाटे से घबरा कर चले गये, वह वहीं ठण्डे फर्श पर बैठी रो पडी। यूं वजह कोई नहीं थी, वह कडा नकारात्मक उत्तर दे सकती थी, पर उसका पूरा वजूद सुन्न हो गया था। क्या ये वही उसका अपना चिरप्रतीक्षित आह्वान न था? विवाह के बाद पहले पल से ही तो वह ऐसे ही किसी आह्वान की प्रतीक्षा करती आई है,आज अगर ऐसा ही कुछ परितोष ने प्रस्तुत किया तो वह सर-ब-पांव कांप क्यों गई, अपने आप से डर कर रो पडी?

वह अवसाद तब छंटा जब एस टी डी बूथ पर जा कर अजित और बच्चों को फोन किया।

“मैं भाग आना चाहती हूं अजित। ”

“हे डोन्ट बी सिली यू ऑनली वान्टेड दिस काइन्ड ऑफ द सक्सेस हूं सच कहूं तो सिर्फ हाउस वाईफ होना तुम्हें अखरता रहा, तुमने अपनी प्रतिभाओं का सही मूल्य पाने के लिए घर उपेक्षित कर वही किया जो चाहा। आज अवसर मिला है तो घर और बच्चों का मोह सता रहा हैं? तुम हमेशा से वही पाना चाहती हो जो तुम्हारे पास नही होता, पाने के बाद चुकाई गई कीमत तक भूल जाती हो। घर, सफलता, पति,माता-पिता सब एक समय पर एक साथ चाहती रही हो । '

“अजित प्लीज फ़ोन पर उपदेश नही सच मैं होम सिक हो रही हूं। ”

“अच्छा लो बच्चों से बात करो। ”

अजित तुम कहां जानते थे कि मैं किस निर्वात की ओर खिंची जा रही थी, जानते भी तो यही सोचते कि अच्छा अभिनय कर रही थी बस इतना ही तो समझ पाते हो तुम लोग। सीधे-साधे गलत या सही के निष्कर्ष पर पहुंच स्वयं को बहुत व्यवहारिक कहते हो। मानसिक गूढताओं, परिस्थिति जनक प्रतिक्रियाओं के बारे में कहां सोच पाते हो तुम व्यवहारिक लोग। पर सच मानो, उस पल मैं एक दुरूह सी फिसलपट्टी पर फिसली जा रही थी और अजित मैंने तुम्हें घबरा कर पकड लेना चाहा था।

अगले ही दिन प्रोफेसर शलभ अपनी नई कृतियों की समीक्षात्मक चर्चा में भाग लेने के बाद शाम की ट्रेन से चले गये। उनके छोटे बेटे की सगाई थी अगले ही दिन । परितोष सर का व्याख्यान उसने सुना,तमाम परिचित -अपरिचित साहित्यकारों, प्रोफेसरों, और कई हिन्दी पढने तथा रूचि लेने वाले विद्यार्थियों के बीच बैठ। गम्भीर वाणी,गहन सुधारवादी आलोचना, सधे हुए मगर कुछ उग्र विचार, मंत्रमुग्ध सी बैठी रही वह। एक पल को ऐसा लगा कि मंच पर रोस्ट्रम पर खडे हैं वो और पूरे हॉल में बस वही अकेली है। अजित की भुजाओं पर से उसकी पकड ढीली होकर खुलने लगी।

सेमिनार हॉल से निकलते -निकलते मौसम बदल गया। उमस भरे दिन का तीसरा प्रहर भी एक षडयंत्र के तहत, बादलों का जत्त्था और ठण्डी हवाओं का जाल लिये आ पहुंचा।

“पल्लव! ”

“जी सर?”

“तुम्हारा जवाब पढ लिया है मैंने। ”

“कौनस जवाब? “ पल्लव निश्चिंत थी, परितोष किस जवाब की बात कर रहें हैं, अनुमान भी न लगा सकी।

“वही ” अब सशंकित हो गई पल्लव ।

“सुबह तुम्हारे कमरे में आया था मैं, तुम्हें बुलाने पर तुम शायद नहा रही थी । वह बिस्तर के पास, टीपॉय पर फडफ़डा रहा था ” ओह । वह कागज क़ा टुकडा? खीज हो आई अपने आप पर। छिः! ऐसी बकवास यूं खुली छोडनी चाहिये थी? घनी शर्मीन्दगी। उफ! वह कागज क़ा टुकडा क्या था, एक गले तक भर आया आवेग ही था, जिसे घबरा कर उसने पास पडे ख़ाली पन्ने पर उलट दिया था। कल रात आवेग में चढती-उतरती उस कागज क़े टुकडे क़ो वही छोड वह सो गई थी, सुबह उठी तो पौने नौ बजे थे, सीधे नहाने चली गई। फिर ।

“हूं ! पल्लव, चुप क्यों हो गई ?”

“मैंने किसी सवाल का कोई जवाब नही दिया। ” तल्लख हो आई पल्लव ।

“अच्छा छोडो , चलो कही चलते हैं। मौसम अच्छा है ना?”

“न, मैं अपने कमरे में जाउंगी। ” भर क्यों गई कमबख्त ये आवाज !

“पल्लव इधर देखो। ” कह कर परितोषने सडक़ पर ही उसका चिबुक उठा दिया। आंखों में एक ज्वार उफनने को था। परितोष हतप्रभ बांह थामे खडा रहा। तभी तेज ग़डग़डाहट के साथ बारिश शुरू हो गई। गनीमत थी कि सेमिनार हॉल से युनिवर्सिटी गेस्टहाउस तक जाने वाली ये सडक़ उस वक्त निर्जन थी। फिर भी पल्लव का संकोच उसे बहाये जा रहा था।

“चलो पल्लव। ” शीघ्र ही संयत हो दोनें चल पडे। पल्लव भीग गई थी,कमरे में पहुंचते ही उसने शॉवर लेकर कपडे बदले। प्रितोष भीगे कपडों में ही सिगरेट सुलगा अपने कमरे की बालकनी में जा बैठा। बादलों का आवेग भी अब थम चला था।

कैसी आकांक्षा है यह? कैसी व्याकुलता? रोमान्स या अफेयर का सवाल नही है, यह तो स्पष्ट है फिर ये आकर्षण क्यों, वह भी इस उम्र में,एक विवाहिता के प्रति? याचक न हो कर भी कमजोर पड रहा हूं शायद ! उसने वह भावुक लिखावट वाला पर्चा निकाला, तभी से।

सील गये उस पर्चे पर बिखरे थे पल्लव के कमजोर होते भाव

न तुम याचक हो ,

न दाता

तुम निर्लिप्त होकर भी

किसी अव्यक्त आकांक्षा में

हाथ बांधे, आंखें मूंदे

वन देवता का अभिनय करते

कनुप्रिया के सम्पूर्ण के लोभी

चतुर कृष्ण तो नही

न यह कोई प्रतिख्यान नही, यह तो है एक मर्माहत प्रतिक्रिया। मैं उसे और कमजोर नही करूंगा। प्रेम..? हं.... वह तो छूट गया बहुत पीछे कही उम्र के साथ। अब इस उम्र में मैं ही तो स्वच्छंद हूं , वह तो दाम्पत्य से जुडी है। मैं क्यों ऐसा आह्वान कर बैठा? क्यों भूल गया था कि ये भारत आज भी कहीं एक लम्बी सांस ले परितोष अंदर चला आया। एक और सिगरेट सुलगा ही रहा था कि दरवाजे पर आहट हुई,दरवाजा खुला था, पल्लव भीतर चली आई। शाम के सात बजे थे,आकाश साफ था, फिर मन में आकर्षण की मरोड उठी। जर्द पीली साडी, सुर्ख लाल बांधनी का बॉर्डर। ये पल्लव हमेशा बिना बांहों के ब्लाउज क्यों पहनती है ? शायद जानती है कि उसकी बांहें आकर्षक हैं।

“सर आपने कपडे तक नही बदले, क्या इन भीगे कपडों में ही बाहर चलने का प्रोग्राम बना रहे थे?”

ये पल्लव भी, हर बात उलझी स्थिति को सुलझा कर सहज हो सामने आ खडी होती है। तू अपूर्वा है पल्लव, मत आ मेरे पास।

“आओ पल्लव ” परितोष का स्वर भीगा सा था।

उसे खोया सा पा कर वह असमंजस में थी। क्या कहे क्या न कहे? फिर परितोष ने ही पूछा, “सच में कहीं चलना चाहती हा?

“हां, यहां का खाना खा-खा कर मेरा तो जी उब गया है, सोच रही थी,कहीं बाहर जाकर चायनीज ख़ाया जाये। ” उसने सहज होने का हरसंभव प्रयास कर परितोष का चेहरा देखा, उतरा-उतरा, उदास-उदास!

“मैं तो इलाहाबाद के बारे में कुछ भी तो नही जानता , क्या तुम्हें पता है

“ढूंढ लेंगे सर ” उत्साह से पल्लव बोली । वह अपने स्वभाव के अनुसार जल्दी ही इस अस्वाभाविक बोझिलता से उबर जाना चाहती थी। ”सर मैं और अजित तो हर नये शहर में यूं ही एक्सप्लोर करते हैं,रेस्टोरेन्ट्स और ढाबे। ”

अजित ! पल्लव का बेटर हाफ ! हलकी सी ईष्या ।

आखिर ढूंढ ही लिया गया शहर के एक कोने में एक चायनीज रेस्टोरेन्ट,खाना भी ठीक ही था। पल्लव बात करती रही अपने होम स्वीट होम'के बारे में फिर अचानक पूछ बैठी ।

“सर आप क्यों नहीं बसे ?”

“इतना व्यक्तिगत प्रश्न भी पूछ रही हो और सर-सर लगाये जा रही हो। प्रितोष ही काफी न होगा पल्लव?

“अच्छा अब टालिये मत हां...। ”

“दरअसल बहुत सालों तक तो सही सोचता रहा कि शादी और जॉब रचनाकार को बांध लेते हैं, ऐसे क्षय होती कई विलक्षण प्रतिभाएं भी देखी। फिर लेक्चरशिप के लिये तो शलभ सर ने समझाया कि रचनाकार के लिये पहले आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है। और रही शादी,उसके लिये किसी ने ज्यादा तर्को के साथ नही समझाया। मां थी तो तभी कुछ रिश्ते आये भी पर मानसिक स्तर की कमी को उच्च आर्थिक स्तर से कम्पनसॅट न कर सका । यूरोप गया, वहां एकाध अकर्षणयुक्त, अथकचरे अफेयर आ जुडे पर शादी जैसा कुछ नही हुआ बस यूं ही उम्र बीतती चली गई। ”

“उम्र बीत गई ? अडतीस-चालिस में तो वेस्ट में लोग सेटेल होने की सोचते हैं। और भारत में भी कई ऐसे उदाहरण होंगे। ”

“छोडो भी ! अच्छा ये बताओ कि तुम्हारी कविताओं में इतने जंगल क्यों होते हैं ?”

“कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट की पत्नी हूं, और बचपन का बडा हिस्सा भी उत्तरप्रदेश के सबसे उर्वर गांवों में बीता। जंगल मेरा ऑबसेशन हैं। ”

“पल्लव तुम गद्य में कहानियां भी लिखा करो, तुम्हारा एक्सप्रेशन अच्छा है। ”

“इतना पेशेन्स भी तो नही है सर। ”

“सर कह कर तुम मुझे खुद से बहुत बडा बना कर रख देती हो। ”

वैसे दूरी बनाये रखने का अच्छा बहाना भी है , कहना चाहता था परितोष पर कहा नही।

लौटते हुए पल्लव ने सोचा, सब संभल गया है। लेकिन सीढियां चढते हुए दोनों के बीच फैली नीरवता एक विप्लव का आह्वान करती रही।

“कॉफी पीना चाहोगी? “ संयत स्वर थे वह मना न कर सकी । अपने विवेक की पोटली कस कर पकड परितोष के साथ उसके कमरे की बालकनी में चली आई। बालकनी तक चढ आई भीगी चमेली की बेल में अब भी कई फूल टंके थे और नशीली महक फैला रहे थे। बादलों से भरी उमस जगाती रात में कॉफी पी गई।

उठने को उध्दत हुई वह ,

“चलूं अब, कल वाला पेपर देख लूं जरा । ” मुडी ही थी वह कि एक अतीव ऊष्मा से भरा अस्फुट स्वर हवा में तैरा,

“पल्लव”

रेत की दीवार सा संयम इन स्वरों से निकली आंधियों से धाराशायी हुआ जा रहा था। उधर अपनी विवशताओं में डूबती-उतरती वह उन्मादी सी,सुदर्शन देह, निःशब्द उसके समक्ष नेत्र जल रहे थे उनमें आंसुओं का फेनिल ज्वार उमडने को था। आवेश का वह कंपा देने वाला ज्वर । एक सुनहरा आग उगलता ड्रैगन सब कुछ भस्म कर देना चाहता था।

“ ये यह पल मत छीनो मुझसे! इस एक पल से मेरी जीवन यात्रा का समस्त संघर्ष सुखमय हो जायेगा। जिन्दगी की जद्दोजहद ने मुझे मरूस्थल बना दिया है। कुछ भी सरस नही मेरे भीतर , पल्लव । आगे के शब्द परितोष के आंसुओं और हिचकियों में डुब गये। उफनती तरंगो का सारा फेन समेटती पल्लव, परितोष को अंदर ले आई। अपना आप भूल वह उसे ही सांत्वना देती रही।

बडे यत्न से संजोए किसी खण्डित स्वप्न सीवह घडी। ईस टूटती-बिखरती घडी क़ो क्या सही अर्थ दे सकती है पल्लव ? ननहीं। हिस्टीरिया के रोगी सा परितोष कभी उसे कस कर जक़डता कभी छाेड देता। वह संभालते-संभालते थक गई थी। रात का दूसरा प्रहर खत्म होने को था।

“सर”

“सर नही पल्लव ! परितोष !”

“मैं जाऊं ?”

“जा सकोगी ?” एक तप्त उच्छवास, उन्माद के संक्रमण से भरा पल्लव की सांसों से प्रविष्ट हो देह के हर कोश में भर गया। पल्लव कांपने लगी। परितोष का कसाव ढीला हुआ तो पल्लव ने जमड लिया।

परितोष चौंका कांपते होंठ, नाक पर जमी पसीने की नन्ही बूंदे,अधमुंदी आंखे। शोर मचाती चल रही थी नब्ज, सच ही ज्वर चढ आया था, जल रही थी पल्लव की ताम्बई देह।

“पल्लव तुम्हें तो बुखार है !”

“परितोष ” विप्लव भरी आतुर पुकार का लगभग वैसा ही आतुर उत्तर पल्लव के नशीले कसावों से हतप्रभ हो परितोष बोला -

“मेरी ओर देखो पल्लव !”

आंखे खुली , लाल लाल डोरों में बंध गया वह।

“पल्लवएक बार फिर पूछ लो अपने विवेक से। ”

पल्लव वहां कहां थी, एक मादक गंध से भरा जंगल पसरा था। लगभग अचेत पल्लव के नासारंध यह फर्क तक नही जान पा रहे थे कि ये परितोष के पसीने की महक है या गीली मिट्टी की। गले में कांटे चुभोती प्यास थी कि हर पल बढती जा रही थी भारती जी की कनुप्रिया के वे अंश जिन्हे पल्लव ने बार-बार पढा था, आज पहली बार अपने अर्थ बताते नेपथ्य में गूंज रहे थे।

लो मेरे असमंजस ! अब मैं उनमुक्त हूं

और मेरे नयन अब नयन नही ,

प््रातिक्षा के क्षण हैं

और मेरी बांहें, बाहें नही हैं पगडण्डियां हैं

और मेरा यह रूपहली धूपछांव वाली सीपी सा जिस्म

सिर्फ एक पुकार है।

उठो मेरे उत्तर !

और पट बन्द कर दो

और कह दो इस समुद्र से

कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जायें

और कह दो दिशाओं से कि वे हमारे कसाव में

आज घुल जायें

“तुमने कोई अपराध नही किया है , बस यही याद रखना। तुमने मेरी और अपनी थकीहारी आस्था को थोडा सा विश्राम दिया है। बस संयत रहना। ”

पल्लव तो संयत ही रही पर तुम्हें क्या हुआ था ? उसे पाने की लालसा दिन प्रतिदिन प्रबलतम क्यों हो उठी थी। वह तेजस्वी व्यक्तित्व डूब गया था अपनी ही प्यास में । क्लान्त चेहेरा, टूटी सी मुस्कान । पुरानी विहंसती मुखाकृति अब उस चेहेरे में ढूंढे नही मिलती थी। क्या कहे पल्लव क्या समझाये, आत्मग्लानि से भर जाती। लौटकर फिर गृहस्थी और थीसिस के अंतिम अध्यायों में उलझ कर रह गई थी वह। प्रोफेसर शलभ व्यस्त थे, असिन्टेन्ट लेक्चरर्स के इन्टरव्यूज होने थे। शलभ सर ने पल्लव को भी एप्लीकेशन देने को कहा था, पल्लव ने तभी कह दिया था कि अजित का ट्रान्सफर इस वर्ष के अन्त तक कभी भी हो सकता है। सो प्रोफेसर शलभ की एम ए की कक्षायें भी उसे ही लेनी होती थी। उस दिन विभाग की एक मीटिंग में बैठे हुए पल्लव की नोटबुक सरका कर परितोष ने चुपके से लिख दिया, “क्या करूं जिसे दैहिक तुष्टि का तीव्र आकर्षण माने बैठा था वह कमबख्त प्रेम निकला और वह भी चालीस की उम्र में तुमसे ही होना था। ”

पल्लव ने घबरा कर नोटबुक बन्द कर ली। उस दिन वह लाइब्ररी के एकान्त में परितोष से बहुत झगडी थी।

“जानते थे ना आप शुरू से कि मैंने आपकी कोई अपेक्षा पूरी करने का वादा नही किया था, आप जानते थे मेरी सीमाएं । अब बस । आपने मेरी एप्लीकेशन भी क्लर्क से मेरे डोक्यूमेन्ट्स लेकर दे दी है। क्यों कर रहे हैं आप यह सब? पता है न अजित का ट्रान्सफर इस वर्ष के अन्त तक कभी भी हो सकता है और मुझे जाना ही होगा। ”

“न, तुम्हे नही जाना चाहिये। मैं और शलभ सर दोनों यही चाहेंगे कि यह पद तुम भरो, ऐसा अवसर गंवा दोगी? तुम्हारे भी बच्चे बडे हो रहे हैं उनके भी भविष्य की सोचो, उनके लिये यहां से अच्छे स्कूल कहां मिलेंगे? जंगलों, छोटे शहरों में पति के साथ ये यायावरी क्यों? अब तो सेटल हो जाओ! ये प्रतिभा यूं व्यर्थ न करो ।

“ज़ानते हैं ना, आपके इन्हीं तौर तरीकों की वजह से पूरे हिन्दी विभाग में कानाफूसियां चल रही हैं। प्रितोष.... असंभव को क्यों संभव करना चाहते हो ? “ आवेग से पल्लव का गला रूंध गया था।

“ उस खण्डित स्वप्न का भूल नही सकते क्या ?”

“भुला दूं ? क्यों ? मेरा मन तो उसकी पुनरावृत्तियां चाहता है। ”

परितोष पल्लव के रूंधते स्वर से बेखबर आंखे मूंदे बोलते रहे।

“जी तो चाहता है कि तुम्हें उठा कर तुम्हारे ही आर्किड्स और फर्न से भरे जंगलों में भाग जाऊं। ” पल्लव की कठोर दृष्टि की अवमानना करते हुए फिर बोले, “ मैं एक साहित्य सम्मेलन में मॉरिशस जा रहा हूं, चलोगी? पूरे पन्द्रह दिन तक हिन्दमहासागर के तट पर कुछ काम करेंगे, साथ लिखेंगे और अपने उसी खण्डित स्वप्न का एक और खण्ड जी लेंगे। ”

“मैं क्या करूंगी, वहां मुझे किसने बुलाया है? मैं कोई जानी मानी साहित्यकार भी नहीं आपकी तरह?” “मेरे साथ सेरी सहयोगी बन कर चलो। ”

“किसे भुलावा दे रहे हो परितोष ? प्लीज ये प्यार का हठ छोड दो। ”

घर आकर बहुत उलझी वह, कर लूं जॉइन लेक्चररशिप? अजित मना नही करेंगे, बच्चों के लिये आज नही तो कल सेटल होना ही होगा । अजित का हर ट्रान्सफर शहर में हो यह जरूरी भी नही। सारी रात स्वप्न में हिन्द महासागर लहराता रहा।

बस इसी दुराग्रह को लेकर अगले दिन परितोष, शलभ सर के ऑफिस में जा पहुंचे थे । वहीं वह भी बैठी थी, शोधग्रन्थ के अंतिम अध्याय का प्रारूप लिये । उफ! कितना अपमानित महसूस करती रही वह शलभ सर के समक्ष। शलभ सर उसे ही समझाते रहे देर तक।

“परितोष का ऐसा असंयत व्यवहार तो तब भी कभी नही देखा जब वह एम ए कर रहा था। सदा से मितभाषी रहा, हां आक्रोश था उसमें सब सुधार कर रख देना चाहता था। पितृहीन हो कर भी अपनी प्रतिभा के बल पर छात्रवृत्तियां ले यहां तक पहुंच गया, पर रहा फक्कड ही। जब तक मां रही समझाती रहीं, मुझे भी कहती रहीं कि मैं ही उसे शादी के लिये मना लूं पर इसे कोई नहीं भाया। अब अभागा ! इसने मुझे पिता का सा सम्मान दिया है, अब इस अभागे को बस तू ही समझा सकती है। ”

“जी सर । ” पल्लव भीगते मन से वहां से उठ आई।

और आज परितोष मॉरिशस के लिये चले भी गये। शुबह पांच बजे ही उठ गई थी पल्लव, सबका नाश्ता बनाया, बच्चों की स्कूल युनिफार्म निकाल कर आया को उन्हें स्कूल भेजने की हिदायतें दीं, फिर स्वयं तैयार होकर चाय बनाई और अजित को जगाया। सुबह की एक क्लास का बहाना बना वह चली आई थी, कैम्पस के लगभग जनविहीन हिस्से में जहां प्रोफेसर्से के कुछ सरकारी आवास हैं। वहीं परितोष रहते हैं।जब वह पहुंची तो परितोष सो ही रहे थे। उनका एकमात्र सेवक रघु चाय बना रहा था।

“नमस्ते दीदी जी । ”

“नमस्ते रघु, सर कहां हैं ? “

अल्पभाषी रघु ने संकेत से बताया वही सुदर्शन सी काया वही तकिये को जकड क़र सोने की पगली सी आदत, चेहरे पर बिखरे कुछ काले सफेद बाल, विलासी अधर, तीखी क्रूर नाक, लम्बी सधी देहाकृति, खूब उजले पैर । एक पैर पलंग की पाटी से लटका पडा था, आधी देह उघाड रजाई भी नीचे लोट रही थी।

“दीदी चाय ले लो, मैं जरा हॉस्टल का काम कर आऊं । ” उसका सम्मोहन तोड रघु चाय की ट्रे पकडा गया।

“परितोष चाय उठो ना !”

“उ अभी नही रघु बाद में । ”

“मैं रघु नही पल्लव हूं उठो भी !”

“इतनी सुबह तुम यहां? “ हडबडा कर परितोष उठ बैठे।

“अच्छा न लगा हो तो चली जाऊं ? आज जाना भी है या नही , मैं बेवजह ही विदा देने तो नहीं आ गई?”

“ऐसे ही विदा देने आना था तुम्हें तो लो मैं जाता ही नही हूं, तुम्हें भी यहीं रख खुद भी चैन से रहता हूं। ” फिर वही आधरहीन हठ !

“अच्छा चाय पी लो । ”

“रख दो न टीपॉय पर ”

“परितोष कपडे मुस जायेंगे प्लीज क्लास भी लेनी है अभी। ”

“देखो पल्लव आज सब भूल जाओ। ” प्रितोष की भुजाएं घेर कर उसे रजाई के भीतर उठा लाई।

“चुप्प आज कुछ मत कहो , बस अंतिम बार अपनी देह से आत्मा में होकर गुजर जाने दो। ”

“परितोष ”

“हूं पल्लव, अपने घर में सद्यस्नात, नम बाल लिये, सिंदूरी बिन्दी लगाये यूं तुम्हें एक बार पा लूं तो मन की बहुत पुरानी साध पूरी हो जाये। ”

बाहर ठण्डी हवा पीपल के पत्तों को सिहराये दे रही थी। न जाने कब बन्ध खुले और निर्वसन देह सुख की वापी में सिहरती उतर गई। जाने क्यों वह परितोष के साथ एकाग्र हो चरम सुख की सीमाएं छू आती है,यहां वह सब याद नही आता, ओह, गैस बन्द की या नही, सुबह जल्दी उठना होगा बच्चों के टेस्ट है। ”

परितोष के अस्तित्व में स्वयं को खोकर वह सोचती है कि देह से आत्मा और आत्मा से होकर अलग छिटक जाने की इस प्रक्रिया में अंन्तिम पडाव आये ही ना। मत जाओ परितोष ! कहीं मत जाओ तुम्हारी अधूरी आकांक्षाओं का आकाश होना स्वीकार है मुझे ।

बहुत सारी क्लान्ति, पीडा देह के पोर-पोर में, और आत्मा के हर स्पंदन में लिये परितोष यात्रा की तैयारी करते हैं। पल्लव साथ देती है। क्लास, लाइब्ररी और टाइपिस्ट के अपॉइन्टमेन्ट को भूल परितोष की फ्लाइट जाने तक उसके साथ है। अब परितोष सधा है तो पल्लव भावुक

“डियर, यही तो अद्भुत है प्रेम में कभी स्ट्रेंग्थ देता है, कभी वीक कर जाता है। ” परितोष ने उसे हलके से बांध लिया। ” तू मेरे लिये जीवन दायिनी है पल्लव । पर अब मैं तुझे कमजोर कर अपने लिये कोई सुख नहीं मांगूगा। तू कुछ ना भी कहे, पर मैं अपराधी हूं तेरा ।” सर नही परितोष हां पल्लव अच्छा अब विदा दो, चार बजे हैं,सर्दियों की शाम जल्दी ढल जाती है।

एक अटपटा सा संक्षिप्त अथ्याय जिस अप्रत्याशितता से आ जुडा था उसी तरह अधूरा सा छूट गया। उसे अब तक यही लगता रहा कि वह उनसे जुडी क़ब ? वह तो मात्र उनके अधूरे सुख का आधार बनी थी। किन्तु यह उनका अधूरा सुख ही तो उसके अपने अवचेतन का सुख था जिसके तहत वह कई बार स्वयं से लड झगड, परितोष को कडे शब्द कह कर भी खुद को उडेल आई थी पल्लव ! मैंने पूरा अखबार पढ लिया, बच्चों ने आकर अपना होमवर्क भी कर लिया और तुम हो कि यहां अनमनी सी बैठी हो, खाना बनाने का मन न हो तो बाहर कही चलें ?”

“हां अजित ”

लौटते समय अजित ने कहा ,

“नही संभल रहा पी एच डी का स्ट्रेस तो छोड दो !”

“नही अजित, अब तो लास्ट चैप्टर भी लगभग टाइप हो गया है। वायवा की डेट भी शलभ सर जल्दी ही फिक्स करवाने को कह रहे थे। बस जरा थक गई हूं। ”

“चलो सब ठीक हो जाएगा, कुछ दिन छुट्टी ले लो”

उस रात पल्लव ने पहल की,

“अजित, मुझे प्यार करो"

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