Teena yadav

लाइब्रेरी में जोड़ें

जर्नलिज्म

फोन पर दूर के रिश्ते के देवर की आवाज है, 'भाभीजी! इस बार आपको हमारे शहर आना ही होगा। कब से टाल रही हैं।'


'क्या करूँ, कुछ ना कुछ व्यस्तताएँ चलती ही रहती हैं।'

'आप मेरी बात सुनेगी तो उछल पड़ेंगी, दौड़ती हुई हमारे यहाँ चली आएँगी।'

'ऐसी क्या बात हो गई?'

'आपका मैंने अपनी पार्टी के मिनिस्टर के साथ लंच फिक्स करवा दिया है। एक जर्नलिस्ट को और क्या चाहिए? - कॉन्टेक्टस। यह तो एक सुपर डुपर कॉन्टेक्ट है।'

फोन उसके हाथ से छूटते छूटते बचा, 'भला मैं मिनिस्टर के साथ खाना खाकर क्या करूँगी?'

'हम सब चलेंगे। वे अपने बारे में कुछ प्रकाशित करवाना चाह रहे हैं। बाद में ये संबंध आपके लिए कितना यूजफुल हो सकता है - यू नो - स्काई इज द लिमिट।'

'मुझे आसमान छूने में कोई दिलचस्पी नही है।'उसने जान-बूझकर रिसीवर इतनी जोर से रक्खा कि वे दोबारा ऐसे प्रस्ताव की हिम्मत ना जुटा पाए।

पत्रकारिता के आरंभिक कल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों को तुर्शी से प्रश्न दागते देखकर व खाने की टेबल पर टूटते देखकर उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस से किनारा कर लिया था। इतने वर्षो तक काम करके उसे लगा है कि वह जर्नलिज्म की परिभाषा सीख चुकी है लेकिन अभी कहाँ - कितना भी जानने पर भी हम कहाँ जान पाए हैं - इस अबाध फैले क्षेत्र को?

भारी भरकम आवाज में एक फोन मिलता है, 'मैं सरस्वती एजुकेशन ट्रस्ट का प्रेसिडेंट एम.एल. वर्मा बोल रहा हूँ।'

'जी कहिए?'

'मेरे ट्रस्ट का डेंटल कॉलेज है, होटल मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट है, नर्सेस एंड आया ट्रेनिंग सेंटर है। कंप्यूटर क्लासेस हैं। मैं जर्नलिज्म डिपार्टमेंट खोल लिया है स्टूडेंट्स, फैकल्टी सब तैयार है क्या आप दो तीन घंटे हमारे यहा दे सकेंगी।'

'मुझे सोचना पड़ेगा।'

'आप हमारे यहाँ आइए तब बात करते हैं।

निश्चित किए समय पर वह उस इन्स्टीट्यूट का बड़ा गेट पास करती है। सारी इमारत की सुघड़ता, सुंदर रेशमी पर्दे, बरामदे में सजे चाइना क्ले के बड़े फ्लावर वास उसका मन मोह लेते हैं।

उसके विजिटिंग कार्ड भिजवाते ही उसे अंदर बुलवा लिया जाता है, 'रियली आई एम ग्लेड टु मीट यू।'

वह बहुत सजग रहती है कि इस तबके के लोग जब तक अपना मतलब ना हो तब तक ग्लेड नही होते। वर्मा जी बताते हैं, 'मेरी कंस्ट्रक्शन कंपनी है बट आई वांट तो डू समथिंग फॉर सोसायटी इसलिए मैंने व मिसिज चावला ने ये एजुकेशन ट्रस्ट बनाया था। ये सेल्फ फाइनेंस इन्स्टीट्यूट है। जितना रुपया आता है वो इसी में लगाता चलता हूँ।'

सेल्फ फाइनेंस इन्स्टीट्यूट यानी शिक्षा के केशत्र में कुछ कर गुजरने वाले लोग इन्हें स्थापित करते हैं। भारी भरकम फीस से इनके खर्च पूरे होते हैं। उसका बहुत बड़ा अंश इसके मालिकों की जेब में जाता है।

वह शंकित से पूछती है, 'क्या छात्र जर्नलिज्म पढ़ना चाहेंगे?'

'क्यों नही? देखिए पहले वर्ल्ड में मोनार्की थी।' उन्होंने अपने बाएँ हाथ की उँगली को पकड़कर कहा फिर दूसरी को पकड़ते हुए बोले, 'फिर ये दुनिया इंडस्ट्रियलिस्ट के हाथ में चली गई, अब एजुकेशनिस्ट का समय आ गया है। यानी कि ज्ञान यानी कि बिल गेट। यानी कि आप जैसे लोगों का बोलबाला होने वाला है तो सतयुग आएगा हा...हा...हा...'

'सर! आजकल दूरदर्शन पर मायथोलोजीकल सीरियल्स आ रहे है उन्हें देखकर लगता है कि आज भी उसी युग में जी रहे है। कैसा सतयुग? बेकार ही लोग आज के युग को कलयुग कहते हैं।'

'नो...नो, दिस इज रियली कलयुग। बाकी युगों में तो एक बॉर्डर लाइन होती थी कि ये देवता है, ये दानव लेकिन अधिकतर लोग देवता का मुखौटा लगाए हैं, असल में हैं दानव हा...हा...हा।'

वह उनके तर्क पर चकित है। वो नौकरी की बात करने आई थी, बात दार्शनिक होती जा रही है, वह चुपके से घड़ी देखते हुए पूछती है, 'सर! वो जर्नलिज्म डिपार्टमेंट की बात?'

'हम यहाँ तीन ट्रस्टी थे। उनमें एक मिसिज चावला थी जो कोऑर्डीनेटर का काम करतीं थी। मै अपना कंस्ट्रक्शन का बिजनेस देखा करता था, अब वो ये काम छोड़कर चली गई हैं। अब आप बतौर एक ट्रस्टी हमारे इन्स्टीट्यूट को सँभाल लीजिए।'

'जी?' उसे हँसी आ रही है, ये अहिंदीभाषी प्रदेश है इसलिए वो समझ नहीं पा रहे कि हिंदी के लेखक या पत्रकार कोई हस्ती नही होते। 'सौरी सर! आई एम वेरी कमिटेड टू जर्नलिज्म।

'आपसे छोड़ने की बात नही कर रहा हूँ। आई वांट टु पुट योर जर्नलिज्म दिस एजुकेशन। आपने इतने वर्ष काम किया है, अब आपको अपना हक मिलना चाहिए। जर्नलिस्ट कैन मेक रिलेशंस विद एजर्नलिस्ट आर वेरी गुड पीआरओ`ज।'

वह ऊपर आसमान से नीचे आ गिरती है, किंचित क्रोधित है, 'वोट टु यु मीन? जर्नलिस्ट आर नोट पीआरओ`ज।'

मेरा मतलब है दोनों का काम एक ही है, बस नाम अलग अलग है।'

'गलत, हम लोग लोगों से सूचना निकालने लेने के लिए संपर्क करते हैं न कि उनसे किसी कंपनी का काम निकलवाने के लिए पटाने का।'

'आप तो बुरा मान गईं। मेरा मतलब यह नहीं था। जैसे आपको कोटा, भोपाल जाकर पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संपर्क करना पड़ेगा। आपका जो खर्च होगा उससे दो हजार रुपया आपको अधिक दिया जाएगा।'

'मै वैसे भी शहर से बाहर जाकर काम नही करती।`

'यहाँ के कोऑर्डीनेटर को बाहर जाना ही होता है।'

'मै बस यहाँ की यूनिवर्सिटी में जा सक्ती हूँ।'

'चलिए यही सही। हमारे यहाँ ऑडिट के लिए सरकारी अफसर आते है तो उन्हें ये ऑफिस दिखाना, उन्हें लंच पर ले जाना। वो दस पचास हजार रुपये माँगें तो उन्हें रुपये देना ये तो कर ही सकती हैं।'

उसे लगता है कि वह दोबारा धड़ाम से नीचे गिर गई है। 'आप मुझे क्या समझ रहे हैं? आपको एक जर्नलिस्ट नही एक इंडस्ट्री के लिए लाइजन ऑफिसर चाहिए, आई वांट तू लीव।' वह कहते हुए उठती है, उसकी आँखों में दो चार बार देखी लाइजन ऑफिसर्स महिलाओं की तसवीर उभर आती है। दोपहिए दौड़ाती इस कंपनी से उस कंपनी दौड़ती रहती हैं। उसे आश्चर्य हो रहा है कि उसके उम्र की महिला को कोई लाइजन ऑफिसर बनाने की सोच भी सकता है।

'प्लीज सिट डाउन, आई एम सौरी! नाराज मत होइए, मैं कोई और चीफ कोऑर्डिनेटर तलाश लूँगा, आप जर्नलिज्म सँभालिए, कल आप इसी समय आइए तब डिस्कस करेंगे।'

वह कम उमर की होती तो इतना सुनने के बाद पलट कर ना आती लेकिन समझ चुकी है कि अंगद ने रावण के दरबार में पैर जमाया होगा तो उसे पीछे हटाने का ख्याल भी मन में आया होगा तो उसने मसलकर रख दिया होगा। पत्रकारिता की उलटी सीधी छवि के बीच उसे उजली छवि बनानी है। बनानी क्या है बनाती चली आई है। सप्ताह में तीन दिन तीन घंटों की नौकरी, वह भी मनपसंद क्षेत्र में, फिर भी ये ट्रस्ट छोड़ गई मिसिज चावला से पता लगाना होगा इस एंपायर व वर्माजी के बारे में। वह फोन मिलाती है, 'मै आपके डेंटल क्लीनिक में एक बार आई थी।'

'ओ! यस। पत्रकारों को कोई नही भूलता।'

'जी सरस्वती एजुकेशन ट्रस्ट के वर्मा जी ने मुझे जर्नलिज्म डिपार्टमेंट खोलने का ऑफर दिया है।'

'इट्स योर पर्सनल मेटर, मै क्या सलाह दूँगी?'

'आपने उसे क्यों छोड़ा?

'मैंने एक ट्रस्टी की तरह इन दस वर्षो में अपना सब रुपया, दिमाग, अपनी इनर्जी सब कुछ लगा दिया। जब अच्छी तरह सेट हो गया, पैसा बरसने लगा तो वर्मा जी अपना हक जमाने आ गए। उनकी आवाज गीली हो काँप रही है, घर में रहने वाली उस स्त्री की तरह जो मध्य वयस में इसी तरह बोलती है,

'सौरी मैडम! आई हर्ट यू, क्या मैं जर्नलिज्म डिपार्टमेंट शुरू कर दूँ क्योंकि सीधा सादा हिसाब है मेरा काम उन्हें पसंद नहीं आता तो वो मुझे निकाल सकते हैं या मैं इन्स्टीट्यूट छोड़ सकती हूँ।` इस शहर में मुझे बीस वर्ष से लोग जानते हैं। यदि कोई पत्रकार इतने वर्ष काम करके गाड़ी ना खरीद पाए तो एथिक्स वाला होगा।'

वह धीमे से हँस पड़ी, 'आप खुद ही निर्णय लीजिए।' वह उनके बारे में इतना जानती है कि वे एक अच्छी डेंटिस्ट हैं। बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। प्रारंभ में पिता के छोड़े पैसे से व अपनी टयूशंस से बहिन भाइयों को पढ़ाया व स्वयं पढ़ी। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के प्रोजेक्ट पर विदेश गई। श्री वर्मा अपना दाँत दिखाने उनके क्लीनिक गए - उसके बाद क्या हुआ कहना है। उन्होंने वरिष्ठ पद पर होते हुए नौकरी छोड़ दी व वर्मा जी व इनके मित्र के साथ सरस्वती इन्स्टीट्यूट खोला व उसकी प्रगति में जीजान से जुट गई थी। बचपन की गरीबी ने उन्हें इतना उन्मत बना दिया था कि काम के अलावा उन्हें कुछ नही सूझता था।

अब वर्मा जी के घर व इन्स्टीट्यूट के रास्ते में उनका अपना डेंटल कॉलेज है, जो आते जाते वर्मा जी की आँखों में जरूर चुभता होगा। सामाजिक ढाँचे में इन जैसी चुनिंदा स्त्रियाँ अपना तेज दिमाग, अपना शरीर लेकर उपस्थित हैं। वर्मा जी व इनका रहस्य अभी भी पर्दे में है किसने किसको जख्म दिए - पहेली सुलझानी बाकी है।

श्री वर्मा उसे दूसरे दिन भी बहुत उद्विग्न व असुंतलित लगते हैं। वे बात नौकरी की ना करके भावुक हो रहे है, 'मैं मैडम चावला को डॉक्टर साहब कहता था। इस इन्स्टीट्यूट की नींव हमने इस इमारत में डाली थी। हम दोनों नीचे बैठा करते थे। मैं मानता हूँ कि दस वर्षो में उन्होंने बहुत मेहनत की थी लेकिन बाद में उनमें बहुत ईगो` पैदा हो गया था। झगड़े के बाद उन्होंने जितने रुपये मेरे वकील से माँगे मैंने दे दिए। मुझे लगता है कि फीमेल्स में ईगो बहुत होता है।' उसे हँसी आ जाती है, 'ये इल्जाम तो स्त्रियाँ पुरुषों पर लगाती हैं, खैर आप छोड़िए, आप कहाँ रहे थे कि कुछ स्टूडेंट्स जर्नलिज्म पढ़ने को तैयार हैं। उन्हें मुझसे मिलवा दीजिए।'

'कौन से स्टूडेंटस? उन्हें तो कोऑर्डीनेटर ढूँढ़ता है।' वे साफ झूठ बोल रहे हैं, 'आप अखबारों में विज्ञापन दीजिए फिर छात्र एप्लाई करेंगे।'

तो उसे स्टूडेंट्स व फैकल्टी तैयार है का ब्लफ देकर यहाँ बुलाया गया है। वह विज्ञापन लिखने में लग जाती है। बाद में उसे निर्देश दिए जाते हैं,' आप ऐसा करिए अगले महीने यहाँ के विश्वविद्यालय में जर्नलिज्म के लिए एंट्रेंस टेस्ट होगा। ढाई सौ छात्रों ने फॉर्म भरे हैं, सीट है पचास तो बाकी कहाँ जाएँगे?'

'सर असफल स्टूडेंट्स कौन से हैं पता कैसे लगेगा?'

'वेरी सिंपल! आप विभाग के क्लर्क को चार पाँच सौ पकड़ा कर वो लिस्ट निकलवा लीजिए। उन सबको यहाँ कोर्स आरंभ हो रहा है इसकी जानकारी देते हुए पत्र डाल दीजिए।'

देने दिलाने के नाम पर उसके शरीर में झुरझुरी हो जाती है, 'सर! इस तरह का काम मुझसे नही होगा।'

अब तक वे एक डेढ़ हजार रुपया विज्ञापनों पर खर्च कर चुके है, अपने क्रोध को पीकर उससे कहते हैं, 'अच्छा आप ऐसा करिए सोनल से मिल लीजिए। यू नो शी बिलोंग टु अ रॉयल फेमिली। उसका असली नाम है सोनल देवी चौहान। उसके एटीकेट्स देखने लायक हैं। हमारा जो लोकल टीवी चैनल है उसमें पीआरओ है।'

'मैंने सुना था कि वह तो लीना देसाई का है।'

'उस चैनल के लिए बिल्डिंग हमने दी है, रुपया लीना के पति ने दिया है।'

'में आई कम इन सर!'

वर्मा जी जोर से हँस पड़ते हैं, 'थिंक ऑफ डेवेल - डेवेल इज हीयर। वेलकम सोनल अभी तुम्हारी बात चल रही थी।'

'सर! आपने कैसे मुझे याद किया?' वह उनके सामने बैठते हुए पूछती है।

वे उसका परिचय करवाते हैं, 'इनसे मिलो ये हैं जानी मानी जर्नलिस्ट।'

'हाय!'वह गर्मजोशी से कहती है, 'यू नो मैडम! मैं भी जर्नलिस्ट बनना चाहती थी। आपने बातली वाला कोचिंग क्लास का नाम सुना है? ...नहीं ...यहाँ के सर साठ हजार रुपये में मुझे इजरायल के अखबार में ट्रेनिंग के लिए भेजने वाले थे।' उसका माथा फोड़ लेने को मन करता है। हथियारों से लड़ने वाले। हथियार बेचने वाले इजरायल का कहीं कला या शिक्षा में ऊँचा नाम नहीं सुना। वहाँ ऐसा कौन सा तीसमार अखबार है जो यहाँ नहीं होगा। वह ऊपर से कहती है, 'यहाँ भी तो यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट है।'

'वो ये बात है मैडम! फॉरेन तो फॉरेन ही होता है। न।'

वह जिस ऐंठ से अकड़कर मुस्कराती है। उसे लगता है वह जिन लोगों के बीच बैठी है उसे भी मुस्कराना चहिए। तभी इस इन्स्टीट्यूट के हर कोर्स के लिए विदेशी मान्यता ली हुई है, उसे विज्ञापित भी खूब किया जाता है। इस संस्थान के अपने सेल्स एग्जीक्यूटिवस भी हैं जैसे कोई धंधा हो।

'तो इस वर्ष जर्नलिज्म डिप्लोमा कर लो। मैं इस वर्ष क्लास आरंभ कर रहा हूँ।'

'अब मूड नही है। मै मार्केटिंग में घुस गई हूँ।'

वर्मा जी कहते हैं, 'मैंने तुमसे बात की थी न, हमें युनीवर्सिटी के जर्नलिज्म डिपार्टमेंट में एंट्रेंस टेस्ट देने वाले छात्रों की लिस्ट चाहिए।'

'सर! वहा सेकंड ईयर का स्टूडेंट मेरी जान पहचान का है। मैं अभी उसे फोन मिलाती हूँ।' वह फोन पर नंबर डायल करने लगती है, 'कौन शिरीष बोल रहे हो?'

सर स्पीकर ऑन कर देते हैं। उधर से शिरीष की आवाज आती है, 'हाँ'।

'मैं सोनल बोल रही हूँ। मेरा एक काम करेगा। मुझे तेरे डिपार्टमेंट की इस बार एंट्रेंस में एपीयर होने वाले छात्रों की लिस्ट चाहिए।'

'वो किससे मिलेगी ?'

'ये लिस्ट क्लर्क के पास होती है। हेड से मैंने बात की थी वे तैयार नही हैं। तू क्लर्क से बात कर।'

'अगर उसने मना कर दिया तो...'

'तो चार पाँच सौ पकड़ा देना। मै तुझे बाद में दे दूँगी।'

'चल हट ये गंदा कम मुझसे नही होगा।'

ओय! अगर नही करेगा तो मार्केट में फेल हो जाएगा, एकदम फ्लॉप जर्नलिस्ट।' वह बड़े नाटकीय स्वर में बोलने लगी, 'जानता है जर्नलिस्ट का क्या काम है? पेपर ऑन द टेबल, मनी अंडर द टेबल ...हाँ...हाँ...हाँ।'

इस बात से खुश होकर वर्मा जी तिरछी आँखों से सोनल को शाबासी देते हैं, उनकी आँखें सोनल के चेहरे से हटकर उसे उलाहना देती है, 'समझो जर्नलिज्म किसे कहते हैं।

'ये सब मुझसे नही होगा।'

'सोच ले मैं बाद में फोन करूँगी।' फिर वह वर्मा जी से कहती है, 'मैं अब निकलती हूँ।'

'ऑफिस जा रही हो?'

'नहीं टीवी प्रोग्राम के एक स्पोंसर से मिलना है।'

वह सोचती है - ऐसे कामों के लिए सच ही रॉयल एटीकेट्स चाहिए। वह चैन की साँस लेती है। अच्छा है सोनल ने जर्नलिज्म नहीं किया नहीं तो एक और जर्नलिस्ट जर्नलिज्म को बाजारू चौराहे पर खड़ा कर देता।'

समाचार पत्रों में विज्ञापन देने के दौरान उसकी दृष्टि विज्ञापन कॉलम पर फिसलती रहती है। कौन कौन से किस किस तरह के विश्वविद्यालय पैदा हो गए हैं डीम्ड यूनिवर्सिटी, दिसटेंट यूनिवर्सिटी, इन्स्टीट्यूट ऑफ करेस्पोंडेंस एजुकेशन। हर शहर में दक्षिण के स्टडी व इन्फॉर्मेशन सेंटर के नामालूम से कोर्स करके बी.ए. यहाँ तक कि एम.सी.ए. या एम.बी.ए. की डिग्री हासिल की जा सकती है।

श्री वर्मा ने एक मीटिंग में ये बात बताई थी, 'बहुत वर्षों पहले ठाकुरों का पूरे उत्तर प्रदेश में दबदबा था। कारण ये था कि उनके परिवार का एक सदस्य घर से घोड़े पर निकाल जाता था। उसका मन जहाँ आता था, वहाँ एक तलवार गाड़ देता था। बस उसके आसपास का इलाका उसकी जागीर बन जाता था। मजाल है कोई उसकी उसकी तलवार को हाथ भी लगा दे। यदि किसी में हिम्मत होती तो उसे हट्टे कट्टे ठाकुर से लड़ना होता था। इसी तरह उस तलवार के इर्द गिर्द गाँव बसता जाता, इसी तरह ठाकुरों की जागीर बढ़ती जाती थी।'

तो वर्मा जैसे तलवार वाली मानसिकता वाले लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में तलवार गाड़ कर जागीर खड़ी कर दी है। - उपजाऊ जमीन सी जो हर वर्ष लहलहाती फसल देती है। जिनके पास पुश्तैनी इमारतें होती हैं, उन्हें और भी सुविधा होती है।

वे कभी अपने अतिथि से से कहते मिलते हैं, 'आई एम एन एजुकेशनिस्ट। मैंने [?] इसे खड़ा करने में दस वर्ष लगाए हैं। यहाँ रोज छह-सात घंटे काम करता हूँ।'

आने वाला उनकी इस समाज सेवा पर मुग्ध हो जाता है, 'बहुत खूब।'

'कभी कभी तो काम करते हुए शाम के सात बज जाते हैं। अच्छा है न! कुछ बच्चों की जिंदगी बन जाए।'

कभी कभी कहते मिलते हैं, 'आई एम अ पक्का बिजनेस मैन, बिना फायदे क%

   0
0 Comments