Teena yadav

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तख्ती

लोग अक्सर मुझसे कहते या पूछते हैं या सिर्फ इस हकीकत की तरफ इशारा करते हैं कि मुझे बहुत-सी आवश्यक जानकारियां नहीं हैं। गणित, व्याकरण खगोलशास्त्र, पुरातत्व जैसे बहुत से विषयों के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। यही नहीं, सामान्य जानकारियां भी नहीं। उदाहरण के लिए आप कहें कि मैं दस चिड़ियों, फलों, मछलियों या पत्थरों के नाम बता दूं तो नहीं बता सकता। यदि आप पूछें कि विश्व की दूसरी प्राचीनतम सभ्यता कौन-सी थी या भूमध्य रेखा कहां से गुजरती है तो मैं मुंह खोल दूंगा। शायद यही वजह है कि कहा जाता है, मेरी शिक्षा कुछ ठीक-ठाक नहीं हुई। लोग उन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में नाम जानना चाहते हैं जहां मैं पढ़ा हूं। कुछ लोग मेरे गुरुजनों के नाम पता लगाने की धृष्टता करते हैं। अब मैं क्या कहूं, कमीनेपन की भी हद होती है।



बहरहाल, इन सवालों से घबराकर मैंने एक यात्रा शुरू की है, जिसमें चाहता हूं आप मेरे साथ चलें। लेकिन कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन आप इनकार करें तो कोई खूबसूरत-सा बहाना जरूर तलाश करें। यह मुझे पंसद है। समझ जाउंगा कि बाहना बना रहे हैं लेकिन दिन नहीं दुखना चाहते। आज के जमाने में यह भी बड़ी बात है। मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा। लेकिन अगर आप मेरे साथ चलेंगे तो उसमें कम-से-कम आपको कोई नुकसान न होगा। हां, अगर आप मेरी धारणा के विपरीत समय को मूल्यवान समझते हो तो बात दूसरी है। अगर आप ऐसा नहीं समझते तो मेरे साथ चलें। बकौल नासिर काजमी 'सब मेरे दौर में मुंहबोलती तस्वीरें हैं। कोई देखे मेरे दीवान के किरदारों को।`

कहां जाता है कि जब मैं सात-आठ साल का था तो मेरी पढ़ाई का सवाल उठा। इतनी देर से इसलिए कि परिवार में कई पीढ़ियों ने पढ़ने-लिखने की कोई जरूरत न महसूस की थी। सगड़ दादा को तो कलम-कागज से ऐसी नफरत थी कि वे अपनी जमींदारी का हिसाब-किताब करने वाले मुंशियों तक को लिखते-पढ़ते देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लेकिन सगड़ दादा बहुत समय तक परिवार के आदर्श न बने रह सके। हां, यह धारणा जरूर बची रही कि लोग नौकरी करने के लिए पढ़ते हैं और चूंकि हमारे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है, हम किसी की नौकरी नहीं करेंगे तो क्यों पढ़ें। घर की पढ़ाई बहुत है। थोड़ी फारसी, थोड़ा हिसाब, थोड़ी अरबी आ जाए तो बहुत है। हमारे परदादा ने अपने दोनों लड़कों को घर की पढ़ाई के बाद पहली बार स्कूल भेजा था। इस वक्त बड़े लड़के की उम्र सोलह सात की छोटे की चौदह साल थी। यह उन्नीसवीं सदी के चलचलाव का जमाना था। बड़े लड़के की स्कूल तालीम इस तरह अंजाम तक पहुंची कि उसकी किसी टीचर से कहा-सुनी हो गई । टीचर ने गाली दे दी। उसने टीचर को उठाकर पटक दिया, हाथ-पैर तोड़ दिए और घर आ गया। परदादा ने इस मामले को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। सोचा, जहां बारह मुकदमे चले रहे हैं वहां तेरहवां भी चलेगा। बस छोटे बेटे की तालीम बड़े सुखद कारणों से अंजाम तक पहुंची। यानी उनकी शादी हो गई। चौथी के बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया।


जिंद़गी के आखिरी दौर में तो नहीं बल्कि उससे पहले ही हमारे दादाजान की समझ में यह बात आ गई थी कि स्कूली शिक्षा जरूरी है। इसकी वजह यह थी कि वे शहर के रईस होने के नाते अंग्रेज अफसरों से उनकी कोठियों, दफ़्तरों, क्लबों में मिलते थे और देखते थे कि उनके दरबारों में आमतौर उन काले लोगों को सम्मान मिलता है जो टूटी-फटी ही सही, गोराशाही ही सही, लेकिन अंग्रेजी बोलते हैं। पर चिड़िया खेत चुग चुकी थी। यानी दादाजान अपने पढ़ने को सुहाना समय गंवा चुके थे इसलिए उन्होंने हमारे पिताजी की पढ़ाई का पक्का धयान रखा। पिताजी छोटे ही थे कि उनको पढ़ाने के लिए सुबह मौलवी, दोपहर के वक्त एक मास्टर अंग्रेजी पढ़ाने और शाम के वक्त एक मास्टर हिसाब पढ़ाने आने लगा। इस तरह दादाजान का इरादा था कि पिताजी की जड़ें मजबूत कर दी जाएं ताकि आगे कोई दिक्कत न हो। नतीजा यह हुआ कि अब्बा गणित से इतना डरने लगे जितना लोग अल्लाह से भी नहीं डरते। अंकगणित और बीजगणित उन्हें दो ऐसे जिन्न लगते थे जो उन्हें दबाकर बैठ गए हों और लगातार मार रहे हों। नतीजा यही निकला कि आठवीं में दो बार लुढ़क गए। दसवीं में थे कि आजादी मिल गई उनको ही,देश को। दसवीं ही में थे कि गांधीजी की हत्या हो गई। फिर दसवीं ही में थे कि जमींदारी खत्म हो गई। पर कुछ ऐसे जरूरी काम थे जो उनके दसवीं में लगातार वक़्त पास की जब दो बच्चों के बाप बन चुके थे।


अब्बा ने मेरी पढ़ाई की तरफ समय से ध्यान दिया। अब चूंकि जमींदारी नहीं थी। किसी-न-किसी को नौकरी करनी थी। इसलिए पढ़ाई जरूरी हो गई थी। मेरी जड़ें मजबूत करने का काम उतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ जितना अब्बा का हुआ था। मुझे पढ़ाने एक मास्टर आते थे। उनका नाम शराफत हुसैन था। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। पान के रसिया। जब पढ़ाते तो पान मुंह में इस कदर भरा रहता था कि मुंह से आवाज के बजाय पान की छींटें निकलती थीं। पढ़ाई के दौरान कई बार वे मुझे घर के अंदर पान लेने भेजते थे, 'जाओ पान लगवा लाओ।' मैं खुशी-खुशी उठकर भागने वाला होता तो कहते, 'इससे पहले जो पान लाए थे वो किससे लगवाया था?' 'अम्मा से।'


'अबकी बड़ी बिटिया से लगवाना।' बाकी डिटेल मुझे याद थी माट साब के पान में कत्था कम चूना ज्यादा, डली कम किमाम ज्यादा. . .

मास्टर साहब अच्छे आदमी थे। मुझे पर विश्वास करते थे। एक बार पढ़ाने के बाद पूछते थे, 'क्यों, समझ गए?' मैं कहता था, 'हां समझ गया।' और वे विश्वास कर लेते थे। कहते थे 'लड़का जहीन है, जल्दी समझ जाता है। तरक्की करेगा।' मैं यह जानता था कि यह पूछने के बाद कि समझ गये वे और कुछ नहीं पूछेंगे इसलिए हां कर दिया करता था। मुझे लगता था जैसे 'हां समझ गया` कहकर मैंने अपनी जिंदगी को आसान बना लिया है वैसे ही दूसरे लोग क्यों नहीं करते। मुझे बचपन में कुएँ से पानी भरकर लाने वाले भिश्ती से बड़ी हमदर्दी थी। मैं यह चाहता कि मेरे काम की तरह उसका काम भी हल्का हो जाए। लड़कपन में कुएँ के पास जाने मनाही थी। एक दिन चला गया था। कुआं घर के बाहर कोने में था। वह मुख्य घर से करीब हजार-डेढ़ हजार फीट दूर था। वहां भिश्ती करीमउद्दीन पानी भर रहा था। मैंने उससे गिड़गिड़ाकर दरखास्त की थी कि क्या एक बाल्टी मैं भी खींच सकता हूं? उसने मुझे ऐसा करने दिया था कि तब से मैं सोचा करता था कि अल्लाह मियां, तू करीमउद्दीन का काम हल्का क्यों नहीं कर देता। बहरहाल, बात हो रही थी कि मास्टर साहब की तो माट साब मुझ पर विश्वास करते थे। मैं माट साहब पर विश्वास करता था। अब्बा जब भी पूछते थे कि माट साब जो पढ़ाते हैं वो समझ में आता है तो मैं कहता था हां आता है जबकि हकीकत यह थी कि जब माट साब पढ़ाते थे तो मैं करीमउद्दीन के बारे में सोचा करता था यह सोचा करता था कि फलों को अगर बहुत जोर से मसला जाए तो रंग निकाला जा सकता है। और रंग से बड़ी अच्छी तस्वीर बन सकती है। या सोचा करता था कि अबकी कमल तोड़ने के लिए किस तालाब में जाना चाहिए। या तैरना सीख लूं तो कितना अच्छा हो। वगैरह-वगैरह।

लड़कपन में माट साब के अलावा कभी-कभी जब जी चाहता था तो अब्बा भी पढ़ाते थे। वह वक्त मेरी उपर बहुत ही सख्त गुजरता था जब अब्बा कहते थे कि अपनी किताबें-कापियां लेकर आओ। अब्बा हिसाब नहीं पढ़ाते थे। हालांकि वे हाईस्कूल थे, मैं पाँचवी में पढ़ता थ। अब्बा का ख्याल था कि अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। अब्बा साल-छह महीने में एकाध बार यह ऐलान करते थे कि वे मुझे पढ़ाने जा रहे हैं तो उसका असर घर में कुछ उसी तरह होता था जैसे हवाई हमले के सूचक सायरन का असर किसी सैनिक अड्डे पर होता है। मतलब अम्मा जानमाज बिछाकर बैठ जाती थी और दुआ मांगती थी कि आज की पढ़ाई के परिणामस्वरूप भंयकर हिंसा न हो। घर में खाना पकाने वाली औरत मेरी पसंद का खाना चढ़ा देती थी कि पिटने के बाद मुझे वह खाना खिलाया जा सके। एक नौकर अर्रे की पतली छड़ी ले आता था क्योंकि अब्बा छड़ी सामने रखकर ही पढ़ाते थे। मेरे साथ गेंद खेलने वाले नौकरों के लड़के भाग जाते थे। कोई जोर-जोर से बात नहीं करता था। बहुत साफ करके एक लालटेन पास रख दी जाती थी कि अंधेरा होने पर फौरन जलाई जा सके। एक नौकरानी हल्दी पीसने लगती थी कि पढ़ाई के बाद मेरी चोट पर लगाई जाएगी. . .जनाबेवाला, हो सकता है कि यह विवरण देने में कुछ अतिशयोक्ति से काम ले रहा हूं लेकिन यह सच है कि अब्बा ने मुझे किस तरह पढ़ाया था आज तक याद है। क्या पढ़ाया था वह भूल चुका हूं।

जब पांचवीं पास करने के बाद मैं छठी में आया तो पुराने माट साब को निकाल दिया गया और उनकी जगह नए माट साब, जो सरकारी स्कूल में अध्यापक भी थे, घर पढ़ाने आने लगे। उनका वेतन उस जमाने के हिसाब से बहुत ही ज्यादा था, जिसका उलाहना मुझे दिया जाता था कि तुम्हारी पढ़ाई पर इतना खर्च किया जा रहा है, तुम ठीक से पढ़ा करो। नए माट साब का नाम शुक्ला माट साब था लेकिन लड़के इन्हें पीछे बग्गड़ माट साब कहा करते थे। माफ कीजिएगा, मैं अपने गुरु का नाम बिगाड़कर उनका अपमान नहीं कर रहा हूं। न तो मैंने उन्हें यह नाम दिया था और न मैं इसे अच्छा समझता था। मैं तो केवल बताने के लिए बता रहा हूं। पाप अन पर पड़ेगा या पड़ा होगा जिन्होंने यह नाम रखा था। तो साहब, बग्गड़ माट साब की उम्र चालीस-पैंतालीस के बीच रही होगी। कद औसत था। जिस्म गठीला था। आंखें छोटी और अंदर को धंसी हुई थीं। होंठ पतले थे। क्लीन शेव रहते थे। गालों के उपर वाली हड्डियों कुछ अधकि उभरी हुई थीं। माथा छोटा था। सिर के बाल बड़े अजीबोग़रीब थे। यानी बिलकुल खड़े रहते थे। काले और बेहद मजबूत थे। रोज ही उनसे सरसों के असली तेल की सुगंध आती थी। उनकी गरदन छोटी थी। शायद उनके बालों के कारण ही लोग उन्हें बग्गड़ कहते थे। बहरहाल, खुदा जाने क्या वजह थी।


जैसा कि उपर बताया गया, बग्गड़ माट साब के बाल बहुत खास थे। उन्हें अपने बालों पर गर्व था। अक्सर उसका प्रदर्शन भी करते रहते थे जिसका तरीका बड़ा रोचक होता था। पढ़ाते-पढ़ाते कभी बालों की चर्चा छिड़ जाती तो पूरे एक घंटे का भाषण और प्रैक्टिकल हमेशा तैयार रहता था। विषय की थ्योरी में मेरी अधकि रुचि नहीं थी। प्रैक्टिकल में मजा आता था यानी बग्गड़ मास्टर अपना सिर झुका लेत थे और मुझसे कहते थे कि मैं उनके बाल पूरी ताकत से खींचूं। कभी-कभी मैं इतनी जोर से उनके बाल खींचता था कि मेरा चेहरा लाल हो जाया करता था, लेकिन बग्गड़ माट साब का एक बाल भी न टूटता था। वे मुस्कराते रहते थे। उसका रहस्य छिपा था थ्योरी में। बग्गड़ माट साहब कहते थे कि वे साबुन से नहीं नहाते। सिर में हमेशा शुद्ध - अपने सामने पिराया - सरसों का तेल लगाते हैं। तेल रोज सुबह लगाते हैं। कंघा कभी नहीं करते आदि-आदि। बग्गड़ माट साब रोज शाम पांच बजे आते थे। घर के बाहर अहाते में कच्ची कोठरी को लीप-पोतकर 'स्टडी रूम` बनाया गया था। उसमें लकड़ी की मेज-कुर्सियां और एक अच्छा-सा मिट्टी के तेल का लैम्प रखा रहता था। बग्गड़ माट साह रोज एक घंटे के लिए आते थे। इतवार छुट्टी होती थी। कभी-कभी उनसे नागा भी हो जाता था। वह सबसे सुहावनी शाम होती थी।

बग्गड़ माट साब में और चाहे जितने दोष रहे हों वे हिंसक नहीं थे, जबकि स्कूल के दूसरे अध्यापक जैसे त्रिपाठी माट साब, खरे माट साब, संस्कृत के पंडित जी, आर्ट के माट साब वगैरह खाल उधेड़ने के लिए मशहूर थे। लेकिन इन सबसे हिंसक होने के अलग-अलग कारण हुआ करते थे और हिंसा व्यक्त करने के तरीके भी जुदा-जुदा थे। जैसे किसी को छड़ी चलाने का अच्छा अभ्यास था। कोई कुर्सी के पाए के नीचे हाथ रखवाकर उस पर बैठ जाता था। कोई तमाचे लगाने और कान खींचने में निपुण था। कोई मुर्गा बनाकर उपर बोझ रखा दिया करता था। कोई उंगलियों के बीच में पेंसिल रखकर उंगलियों को दबाकर असह्य पीड़ा पैदा करने का हुनर जानता था। बहरहाल, एक ऐसा बाग था जिसमें तरह-तरह के फल खिले थे। हां, त्रिपाठी माट साब का तरीका बड़ा मौलिक और रोचक था। वे कुर्सी पर बैठकर लड़के का सिर अपने दोनों घुटनों के बीच दबा लेते थे और उसकी पीट पर अपने दोनों हाथों से दोहत्थड़ मारते थे। यह करते समय वे 'बोतल-बोतल` कहा करते थे। पता नहीं बोतल क्यों कहते थे। लड़कों ने इस सजा का नाम 'बोतल बनाया` रखा था।


एक दिन का किस्सा है, त्रिपाठी माट साब ने बैजू हलवाई के लड़के को बोतल बनाने के लिए उसका सिर घुटने में दबाया और दोहत्थड़ मारा। पता नहीं लड़के को चोट बहुत ज्यादा लगी या वह तड़पा ज्यादा या त्रिपाठी माट साब ने उसे ठीक से पकड़ नहीं रखा था, वह छूट गया। उठकर भागा। माट साब उसके पीछे दौड़े। वह खिड़की से बाहर कूद गया। माट साब भी कूद गये। वह भागकर स्कूल के गेट से बाहर निकल गया। माट साब भी निकल गये। उन्हीं के पीछे पूरी क्लास 'पकड़ो-पकडो` का शोर मचाती निकल गई। भागदौड़ में माट साब की धोती आधी खुल गई और उनकी चोटी भी खुल गई। पर वे सड़क पर उसका पीछा करते रहे। स्कूल के सामने तहसील थी। उसके बराबर में कुछ हलवाइयों की दुकानें थीं। बैजू हलवाई की दुकान और उसके पीछे घर था। लड़का दुकान में घुसा और घर के अंदर चला गया। पीछे-पीछे माट साब पहुँचे। माट साब कहने लगे, 'निकालो ससुरउ को बाहर. . .अब तो जब तक हम दिल भर के मार न लेब, हमें खाया पिया हराम है।' 'पर बात का भई माट साहिब?' बैजू ने पूछा।

'हमारा अपमान किहिस ही. . .और का बात है।' बैजू समझ गया। उसकी पत्नी भी समझ गई। लोग भी समझ गए। तहसील के सामने वकीलों के बस्तों पर बैठे मुंशी भी उठकर आ गए। थोड़ी ही दे में मजमा लग गया। माट साब जिद ठाने थे कि लड़के को बाहर निकालकर उन्हें सौंप दिया जाये। बैजू बहाने बना रहा था। अत में उसने कहा कि लड़के ने घर के अंदर से जंजीर लगा ली है और खोल नहीं रहा है। यह जानकर त्रिपाठी माट साब और गरम हो गये। इस नाजुक मौके पर मुंशी अब्दुल वहीद काम आये, जो त्रिपाठी के साथ उठते-बैठते थे। मुंशीजी ने कहा, 'ठीक है, त्रिपाठी जी, लड़का तुम्हें दे दिया जाएगा। जितना मारना चाहो मार लेना, पर यह तमाशा तो न करो। तुम अध्यापक हो, यहां इस तरह भीड़ तो न लगाओ।' फिर उन्होंने सब लड़कों को डांटकर भगा दिया। और बैजू से कहा, 'माट साब के हाथ-मुंह धोने को पानी दे।' इशारा काफी था। बैजू ने एक बड़ा लोटा ठंडा पानी दिया। माट साब ने हाथ-मुंह धोया। फिर बैठ गये। बैजू ने करीब डेढ़ पाव ताजा बर्फ़ी सामने रख दी। एक लोटा पानी और रख दिया। त्रिपाठी जी का गुस्सा कुछ तो पानी ने ठंडा कर दिया था। कुछ बर्फ़ी ने कर दिया।

बैजू हलवाई ने कहा, 'आप चिंता न करो। साला जायेगा कहां समझा-बुझा के आपके पास ले आएंगे। दंड तो ओका मिला चाही।' उसी वक्त स्कूल का चपरासी आया और कहा कि त्रिपाठी माट साब को हेड मास्टर साहब याद करते हैं।

कुछ दिनों बाद यह पूरा किस्सा एक बड़े रोचक मोड़ पर आकर धीरे-धीरे खत्म हो गया। बैजू हलवाई के लड़के को एम.ए. की डिग्री मिल गई। यानी उसका शिक्षाकाल समाप्त हो गया। त्रिपाठी माट साब महीने में दो-तीन बार स्कूल आते वक्त जब जी चाहता था बैजू हलवाई की दुकान की तरफ मुड़ जाते थे। उन्हें देखते ही बैजू का लड़का घर के अंदर चला जाता था। बैजू से माट साब पूछते थे, 'कहां गवा ससुरा?' बैजू बहाना बना देता था। माट साब भी समझते थे कि टाल रहा है। तब बैजू उन्हें एक दोना जलेबी या बेसन के लड्डू या कलाकंद पकड़ा देता था। माट साब बेंच पर बैठकर खाते और पानी पीते थे। बैजू और उनके बीच कुछ गहरे आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत होती थी कि यदि हम राम, रामहु, राम: वगैरह-वगैरह सीख भी लेंगे तो क्या होगा! कुछ दिनों बाद यह विश्वास हो गया था कि कभी न सीख सकेंगे और कुछ दिनों बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे कि व्याकरण पैदा ही इसलिए हुई है कि हमें पिटने के अवसर मिलते रहें।

अगर मैं सभी अध्यापकों के सजा देने के तरीक़ों का पूरा विवरण दूं तो बहुत से पन्ने काले हो जाएंगे। आप ऊब जाएंगे। लगेगा मैं स्कूल का नहीं पुलिस थाने का विवरण दे रहा हूं। इसलिए मुख़तसर लिखे को बहुत जानो।

हमारे स्कूल का नाम गवर्नमैंट नार्मल स्कूल था। नाम शायद स्कूल खोले जाने के बाद रखा गया था क्योंकि वहां हर चीज 'एबनार्मल` थी। लेकिन शहर के अन्य स्कूलों की तुलना में यह बहुत आदर्श स्कूल माना जाता था क्योंकि यहां कमरे, कुर्सियां, ब्लैकबोर्ड आदि थे। अध्यापक भी दूसरे स्कूलों की तुलना में पढ़े-लिखे तथा प्रशिक्षित थे। हम अक्सर गर्व भी किया करते थे कि हम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। बग्गड़ माट साब गर्व करते थे कि वे सरकारी नौकर हैं। रिटायर होने के बाद उन्हें बाकायदा पेंशन मिलेगी।

मेरा विषय चूंकि गुरुजनों पर केंद्रित है इसलिए लौटकर फिर बग्गड़ माट साब पर आता हूं जिनका प्रभाव आज तक मुझ पर है यानी उन्होंने मुझे जो सिखाया या नहीं सिखाया, जो बनाया या बिगाड़ा वह आज तक मरे अंदर झलकता है। मैं उनका आभारी हूं। बग्गड़ माट साब अनौपचारिक शिक्षा के महत्व को उस जमाने में भी बहुत गहराई से समझते थे। यही कारण था कि अक्सर गणित पढ़ाते-पढ़ाते वे अपनी घरेलू समस्याओं तक पहुंच जाते थे। उनकी एक समस्या, छोटी-सी उलझन यह थी कि उन्हें दूध बाजार में पीना पड़ता था। कारण यह था कि उनके बच्चे अधकि थे। घर में यदि दूध मंगाते तो सभी को थोड़ा-थोड़ा देना पड़ता। और इस तरह बग्गड़ माट साब के हिस्से में छटांक भर ही आता। यह सब सोच-समझकर वे बाजार में दूध पीते थे। किसी हलवाई की दुकान के सामने खड़े होकर डेढ़ पाव दूध गरमागरम पीने के बाद ही वे घर लौटते थे। लेकिन इसमें एक दिक्कत थी हलवाई की दुकान का दूध पीते उन्हें यदि कोई देख लेता था तो बग्गड़ माट साब को बड़ी शर्म आती थी। फिर उसे आमंत्रित करना पड़ता था। फिर शकर में खूब चर्चा होती थी कि बग्गड़ माट साब रात में ट्यूशन पढ़ाने के बाद जब घर लौटते हैं तो हलवाई के यहां खड़े होकर दूध पीते हैं। यह बात उड़ते-उड़ते घर भी पहुंच जाती थी जिससे बग्गड़ माट साब की उनकी पत्नी से लड़ाई तक जो जाया करती थी। इस लड़ाई में लड़के, जिनमें जवान लड़के से लेकर दो साल की उम्र तक के शामिल थे, अम्मा का पक्ष लेते थे।


बग्गड़ माट साब बी.ए., बी.टी. थे। पता नहीं उनके मन में क्या आई कि हिंदी में प्राइवेट एम.ए. करने के लिए फार्म भर दिया। वे स्कूल में लड़कों से तथा घर में मुझसे कहते थे कि यह हम लोगों के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे अध्यापक एम.ए. पास हैं। कुछ दिनों के बाद यह होने लगा कि बग्गड़ माट साब अपने साथ एक मोटी-सी किताब लाने लगे। जब पढ़ाने बैठते तो कहीं-न-कहीं से अपनी एम.ए. की पढ़ाई का जिक्र छेड़ देते और फिर एक मोटी-सी पुस्तक निकालकर जोर-जोर से पढ़ने लगते। मेरी समझ में वह बिलकुल न आयी थी, लेकिन खुश होता था कि चलो मैं खुद पढ़ाई से बच रहा हूं। एक पुस्तक का नाम अभी तक याद है जो बग्गड़ माट साब लाया करते थे 'पद्मावत`। वे जो पंक्तियां पढ़ते थे उसकी व्याख्या भी करते जाते थे। जब तक उन्होंने एम.ए. पास नहीं कर लिया तब तक उनकी पढ़ाई और मेरी पढ़ाई साथ-साथ होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि वे एक घंटे के बजाय दो घंटे बैठते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि वे एम.ए. पास हो गये हैं। डिवीजन पूछने पर बोले, 'मैंने डिवीजन के लिए एम.ए. थोड़ी ही किया है। मेरा ध्येय है कि कभी जब मैं प्रिंसिपल बनूं तब तख़्ती पर मरे नाम के साथ जो डिग्रियां हों उनमें बी.ए., बी.टी., एम.ए. होना चाहिए।' इस तरह वे अपने मकसद में कामयाब हो गये थे। स्कूल में अन्य अध्यापक कहते थे कि बग्गड़ माट साब की थर्ड डिवीजन आई है।

बग्गड़ माट साब ने मुझे कक्षा छ: से लेकर दस तक पढ़ाया था। नवीं तक मैं बराबर पास होता रहा। इसमें उनकी पढ़ाई का योगदान था या मेरी बुद्धि का चमत्कार, कह नहीं सकता। लेकिन नवीं तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। दसवीं में जब पहुंचा तो बग्गड़ माट साब ने घोषणा कर दी कि मैं दूसरी सभी विषयों में पास हो जाउंगा लेकिन वे गणित में पास होने की गारंटी नहीं लेते। अब्बा को जब यह पता चला तो उन्होंने इस सहज ही लिया। वे जानते थे कि मैं गणित में बहुत कमजोर हूं। मैंने यह लाइन ले ली थी कि गणित की जो कमजोरी मुझे 'विरसे` में मिली है उसके जिम्मेदार अब्बा हैं। मतलब यह कि बग्गड़ माट साब की तरफ से मेरी तरफ से, अब्बा की तरफ से यह तैयारी पूरी थी कि मैं गणित में फेल हो गया तो अचंभा किसी को नहीं होगा।

गणित से मेरी कभी नहीं पटी। गणित के अपने कृपा के द्वार मेरे लिए सदा बंद रखे हैं। और इसका आरोप बिना वजह मेरे उपर लगाया जाता था। सब, सबसे ज्यादा अब्बा कहा करते थे कि मैं 'कूढ़मगज` हूं। मैं इस शब्द का मतलब यह समझता था कि मेरे दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है। गणित पढ़ते समय यह संदेह विश्वास में बदल जाता था। मैं अपने गणित न सीख पाने का रहस्य समझ चुका था। लगता था कि अब प्रयास करना भी बेकार है। जब दिमाग में साला कूड़ा भरा हुआ है तो हम क्या कर सकते हैं। फिर खुशी भी होती थी कि चलो इसकी जिम्मेदारी हम पर नहीं आती, क्योंकि कोई अपने आप तो अपने दिमाग में कूड़ा नहीं भर सकता। अकल कम है वाली धारणा मेरे अंदर बहुत गहराई में जाकर बैठ गई थी।

जिस मेरे गणित का पेपर था, उस दिन अब्बा ने कहा कि वे नमाज पढ़ेंगे। मैंने कहा मैं भी पढ़ूंगा। तब अब्बा ने कहा, नहीं तुम अपना हिसाब पढ़ो। वे चाहते थे कि काट बंट जाये। बहरहाल, दोनों तरफ से तैयारियां पूरी थीं। मैं सुबह साढ़े छह बजे शहीदों वाली मुद्रा में घर से निकला। इतना ज्यादा पढ़ लिया था कि कुछ भी याद न था। सेंटर दूसरी जगह था। वहां गया। बरामदे में सीट लगी थी। पीछे की सीट पर एक दादा किस्म का लड़का बैठा था। उसने इम्तिहान शुरू होने से पहले मुझसे कहा कि ठीक एक घंटे के बाद मैं पेशाब करने के लिए जाउं और पेशाबखाने की खिड़की के पीछे नकल कराने आये लोगों में से कोई करीम मुझे हल किया पर्चा दे देगा। मैंने कहा, पर मैं करीम को पहचानूंगा कैसे. . .? उसने कहा, तुम आवाज देना करीम। वह रोशनदान से पर्चा दे देगा। कहना, सल्लू दादा ने भेजा है। पर्चा ले आना।

खैर साहब, घंटा बजा। पर्चा बांटा गया। देखा तो मामला पूरा गोल यानी कोई सवाल नहीं आता था। सल्लू दादा ने पर्चा बनाने वाले की मां-बहन को याद किया और पंद्रह मिनट बाद पर्चा जेब में ठूंसकर पेशाबखाने की तरफ दौड़े। उन्होंने इसकी इजाजत भी नहीं ली, जो जरूरी थी। बहरहाल, उनके हाव-भाव से सब समझ चुके थे कि वे दादा हैं और कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए बेचारे सूखे मरियल अध्यापक उन्हें बड़ी-से-बड़ी सीमा तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार थे। वे पर्चा दे आये और कापी पर इस तरह झुककर लिखने लगे जैसे सारी जान उसी में लगा देंगे। मैंने भी यही किया। जब पूरा एक घंटा हो गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जाउं। मैं बाकायदा इजाजत लेकर गया तो मेरे पीछे-पीछे एक अध्यापक भी गये। और नतीजे में काम नहीं हो पाया। सल्लू दादा से मैंने बता दिया कि ऐसा हुआ। उन्होंने चुनिंदा गालियों का पिटारा खोल दिया। उठे और पेशाबखाने की तरफ बढ़ गये। अध्यापक उनके पास तक आया, कुछ बात हुई और फिर लौट गया। मतलब सल्लू दादा की विजय। वे आये। नजरों में विजय का हर्षोल्लास था। बिलकुल नेपोलियन की तरह। इसके बाद उन्होंने काम शुरू कर दिया। करीब एक घंटे इंतजार के बाद फिर मेरी बारी आई। जिंदगी में पहली बार यह पवित्र काम कर रहा था। हाथ कांप रहे थे। होंठ सूख रहे थे। लिखा कुछ था दिखाई कुछ दे रहा था। और एक ही घंटा रह गया था। निगरानी बढ़ गई थी। पकड़े जाने पर तीन साल के लिए निकाले जाने का डर था। बहरहाल, तनाव इतना था कि कह नहीं सकता। पर मरता क्या न करता!

गर्मियों की छुट्टियों के सुखद दिनों में एक तनावपूर्ण सप्ताह आया जब बताया गया कि 'रिजल्ट` आने वाला है। साइकिलों पर बैठकर लड़के स्टेशन जाते थे, जहां सबसे पहले अखबार पहुंचता था। एक दिन गये, नहीं आया। बताया गया दो दिन बाद आयेगा। फिर गये, नहीं आया। फिर एक दिन आया। खुद देखने की हिम्मत न थी। किसी ने बताया, साले तुम पास हो गये हो। अपनी खुशी का हाल मैं क्या बताऊँ। लेकिन श्रेय सल्लू दादा को जाता है।


हाईस्कूल करने से पहले ही मेरे भविष्य के बारे में बड़ी-बड़ी योजनाएं बननी शुरू हो गई थीं। योजनाएं बनाने वालों के कई गुट हो गये थे। अब्बा मुझे एयरफोर्स में भेजना चाहते थे। हाईस्कूल के बाद ही कोई ट्रेनिंग होती थी जो मुझे करनी थी। अम्मा इसकी सख्त विरोधी थी। उसका मानना था कि मुझे डॉक्टर बनना चाहिए। अब्बा मान गये कि चलो ठीक है, मैं डॉक्टर बन जाउं। एक छोटा-सा गुट यह भी कहता था कि कृषि-विज्ञान में कुछ करना चाहिए ताकि घर की खेती-बाड़ी संभाल सकूं। तीसरे गुट की राय यह थी कि वकालत पढ़ लूं क्योंकि हम लोगों में बहुत से मुकदमे चला करते थे। बहरहाल जितने मुंह उतनी बातें। आखिरकार राय यह बनी कि मुझे डॉक्टर ही बनना चाहिए और घर पर रहकर प्रैक्टिस करनी चाहिए। इस तरह मैं घर की खेती भी देख सकूंगा, मुक़दमेबाज़ी भी कर सकूंगा वगैरह-वगैरह। मजेदार बात यह है कि मुझसे कभी कोई नहीं पूछता था कि तुम क्या बनना चाहते हो। मुझे मालूम था कि अगर मुझसे पूछा जाता और मैं अपनी मर्जी का पेशा बता भी देता तो मुझे वह न बनने दिया जाता। मैं दरअसल आर्टिस्ट बनना चाहता था- कलाकार, पेंटर। लेकिन चित्रकारों, या कहें हर तरह के कलाकर्मियों के बारे में अब्बा की राय बहुत ज्यादा खराब थी। वे लेखकों, शायरों, चित्रकारों आदि को बहुत ही घटिया और निम्नकोटि के लोग मानते थे। ऐसे लोग जो अनैतिक होते हैं, भ्रष्ट होते हैं, शराब पीते हैं, कई-कई औरतों से संबंध रखते हैं, खुदा को नहीं मानते वगैरह-वगैरह। मतलब, अगर मैं मुंह से यह बात निकाल भी देता तो डांट पड़ती। अब मैं आपको लगे हाथों एक मजेदार बात बता दूं। स्कूल में मुझे केवल कक्षा पांच तक आर्ट पढ़ाई गई थी। लेकिन मैं आगे भी पढ़ना चाहता था। पर थी ही नहीं तब मैं चाहता था कि रंग का एक डिब्बा खरीद लूं। लेकिन यह भी जानता था कि रंग का डिब्बा इतना बड़ा अपराध होगा कि उसकी माफी न मिलेगी, क्योंकि मुझे पेंसिल से तस्वीरें बनाते देखकर ही अब्बा को बेहद गुस्सा आ जाता था। करीब-करीब मारते-मारते छोड़ते थे। शायद यही वजह है कि आज सफेद कागज और रंग मेरी कमजोरी हैं। सफेद कागज मुझे ऐसी अद्वितीय सुंदरी जैसा लगता है जिसका अलौकिक सौंदर्य विवश कर देता है। कलम या रंग देखकर मेरी पहली तीव्र इच्छा उसे ले लेने की ही होती है। मैंने कागज की जितनी चोरी की है उतना शायद कुछ और नहीं चुराया। कागज में मेरा प्रेम बढ़ती हुई उम्र में साथ बढ़ता ही गया। करीब दस साल पहले अमेरिका में एक धनाढ्य महिला ने मुझसे पूछा कि मैं न्यूयार्क में क्या देखना या करना चाहता हूं। वह महिला मेरी मदद या खातिर वगैरह करना चाहती थी। वह समझ रही थी कि कम पैसा और कम साधन होने के कारण जो कुछ मैं अपने आप देख या खरीद नहीं सकता, उसमें वह मेरी मदद करेगी। मैंने उसे बताया कि मैं न्यूयॉर्क में कागज, कलम, रंग वगैरह, मतलब स्टेशनरी की दुकानें देखना चाहता हूं। वह प्रसन्न हो गई और मुझे कई दुकानें दिखाईं।


देखिए, बात कहां से कहां जा पहुंची। इसी तरह बग्गड़ माट साब भी बात को कहीं पहुंचाकर कहीं से कहीं ले आते थे। हाईस्कूल में मेरे पास होने के बाद बग्गड़ माट साहब मुझसे बिछुड़ गये। उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि विदाई 'समारोह` में उन्हें एक घड़ी उपहारस्वरूप दी जाये जिस पर खुदा हो कि क्यों, कब, कैसे, कहां किसने दी है। मैंने उनकी यह इच्छा अब्बा के सामने रख दी थी। उन्होंने कहा था, घड़ी बहुत महंगी आती है। बग्गड़ माट साब को कुछ और दिया गया था।

विश्वविद्यालय में जब दाखिल हुआ तो डॉक्टर बनने की योजना के अंतर्गत सांइस के विषय ही दिलाए गये। हॉस्टल में रहने की जगह मिली। पहली बार आजादी मिली। हाथ में पैसा आया। डर खत्म हो गया। जल्दी ही 'हाबीज वर्कशॉप` में पेंटिंग सीखने का कोर्स ज्वाइन कर लिया। यहां कलीम साहब नामक अध्यापक थे। काफी दोस्ताना माहौल में काम करते थे। हम तीन लड़कों से, जो आपस में दोस्त और क्लासफैलो थे, हमारी अच्छी-खासी दोस्ती हो गई थी। हद यह है कि थोड़ा उधर-व्यवहार तक चलने लगा था। कलीम साहब ने लखनऊ आर्ट कालिज से पढ़ाई की थी और 'जुलाजी डिपार्टमैंट` में आर्टिस्ट के पद पर काम करते थे। शाम को 'हाबीज वर्कशॉप` में क्लास लेते थे। कुछ ही महीनों में हमें पता लगा कि कलीम साब आदमी अच्छे हैं लेकिन आर्ट-वार्ट से उनका रिश्ता वाजबी-वाजबी-सा ही है। खैर, क्या किया जा सकता था। वैसे भी उनको जितना आता था उतना हम सीख लेते तो बड़ी बात थी, लेकिन धीरे-धीरे यह भी पता चला कि कलीम साब चतुर भी हैं। जैसे एक बार हमारे एक दोस्त को एक विशेष साइज के चित्र बनाना था। कलीम साब ने उसका खरीदा कैनवास इस तरह काट किया कि उस उसके लिए बेकार हो गया, लेकिन कलीम साब के काम आ गया। हमें यह बुरा लगा। पर कलीम साब हमें कभी-कभी अपने घर खाने के लिए भी बुलाते थे। और यह हमारे उपर इतना बड़ा उपकार होता था कि हमेशा उसके बोझ से दबा महसूस करते थे।

एक दिन मैं कलीम साब के घर पहुँचा तो देखा कि बड़ी मोटी-सी डिक्शनरी लिये बैठे हैं। पूछने पर कि क्या कर हैं, बोले कि 'कंटम्पलेशन` का मतलब देख रहा हूं. . .

'क्या कुछ पढ़ रहे थे?' 'नहीं भाई,' उन्होंने एक ठंडी सांस लेकर कहा, 'ये लफ़्ज कहीं देखा था पंसद आया। सोचा कि इस पर एक पेंटिंग बनाऊँ।'

कलीम साहब ने हम लोगों को दो-तीन साल ही सिखाया। उसके बाद विश्वविद्यालय में 'आर्ट क्लब` नामक संस्था खुल गई थी जिसके हम सब सदस्य हो गये थे।


कोर्स में दूसरे विषयों, जैसे केमिस्ट्री, बॉटनी आदि के अध्यापक बहुत साहब किस्म के लोग थे। पूरा सूट-टाई वगैरह पहनकर आते थे। लेक्चर थिएटर में टहल-टहलकर लेक्चर देते थे। कभी-कभी चाक से कुछ लिखते भी थे। फिर चले जाते थे। यानी उन्हें न हमसे कोई ताल्लुक था और न हमें उनसे कोई मतलब था। हम समझ रहे हैं या नहीं, इसकी वे चिंता नहीं करते थे। बस हमसे अपेक्षा की जाती थी कि हम चुपचाप क्लास में आकर बैठ जाएंगे। रोल नंबर पुकारने पर 'यस सर` बोलेंगे। पैंतालीस मिनट खामोश बैठेंगे और घंटा बजने पर चले जायेंगे। इस व्यवस्था से हम लोग भी खुश रहते थे और अध्यापक भी।

अन्य विषयों के अतिरिक्त हम लोगों को धर्मशास्त्र भी शिक्षा भी दी जाती थी। हमें धर्मशास्त्र मौलाना घोड़ा पढ़ाते थे। मौलाना का असली नाम क्या था यह शायद कागजात को ही मालूम था। सारी यूनिवर्सिटी में वे मौलाना घोड़ा कहे, पुकारे जाते थे। इस नाम के पीछे शायद उनकी शक्ल का हाथ था। बहरहाल, मौलाना लड़कों के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करते थे। मौलाना को पान खाने की लत थी और अक्सर वे पानों की डिबिया-बटुआ भूल आते थे। उनकी क्लास अक्सर इस तरह शुरू होती थी- भई, आज सुबह से मैं बड़ी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। हुआ यह कि रोज बेगम मेरी शेरवानी की जेब में पानों की डिबिया और बटुआ रख देती हैं, आज पता नहीं क्या हुआ कि भूल गईं। मैं जब यहां पहुंचा तो देखा दोनों चीजें नहीं है।। खैर, फर्स्टइयर की क्लास आ गई। उनको पढ़ाया। फिर तुम लोग आ गये। अब मैं तुम लोगों से भी पान नहीं मंगा सकता क्योंकि तुम लोग जूनियर हो। थर्डइयर के तालिबेइलम जब आएंगे तो उनसे कहूंगा। मौलाना घोड़ा के इस वक्तव्य पर शोर मच जाता था। लड़के कहते थे कि ये नहीं हो सकता, वे अभी जाकर पान ले आएंगे। मौलाना 'ना-ना` करते थे, लड़के 'हां-हां` करते थे। काफी खींचातानी, बहस-मुबाहिसों के बाद आखिरकार बहुत कलात्मक ढंग से मौलाना घोड़ा हथियार डाल देते थे। एक लड़का उठता था। मौलाना उसे बाजार जाकर पान लाने की इजाजत देते थे। वह अनुरोध करता था कि वह अकेला नहीं जा सकता, कम-से-कम एक लड़के को उसके साथ जाने दिया जाये। ऐसा हो जाता था। फिर कुछ लड़के कहते थे कि उन्हें भी पान की तलब महसूस हो रही है। जाहिर है, तलब तो तलब है। उसके महत्व से कौन इनकार कर सकता है। मौलाना उन लड़कों को भी जाने की इजाजत देते थे। तब कुछ और लड़के खड़े हो जाते थे कि उन्हें सिगरेट की तलब लगी है। इस तरह होता यह था कि पूरी क्लास अपनी 'तलब` पूरी करने चली जाती थी और दो लड़के साइकिल पर जाकर मौलाना घोड़ा के लिए दो पान ले आते थे।


साइंस की पढ़ाई में मेरा ही नहीं, हम तीनों दोस्तों का दिल न लगता था। हम सब अपने आपको आर्टिस्ट समझने लगे थे। क्लास में न जाना, प्रॉक्सी हाजिरी लगवाना, आवारागर्दी करना, चाय पना, रातों में टहलना, सिगरेट पीना, शेरो-शायरी में दिलचस्पी लेना, लड़कियों को देखने के लिए मीलों चले जाना, कलाकारों जैसे कपड़े पहनना, किराये की साइकिल पर शहर की वर्जित सड़कों के चक्कर काटना, साहित्यिक-सांस्कृतिक कामों में जान लड़ा देना, अपने से बड़ी उम्र के लोगों से दोस्ती करना, धर्म में अरुचि, ईश्वर है या नहीं, विषय पर विवाद करना आदि-आदि हम करते थे। इसलिए जाहिर है साइंस की पढ़ाई के लिए वक्त न मिलता था।


अध्यापकों से हमारा रिश्ता भी दिलचस्प था। जो हमें नहीं पढ़ाते थे, उनसे हमारे बड़े अच्छे संबंध थे। मतलब, विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों को हम जानते भी न थे, पर साहित्य और कला के अध्यापकों से हमारी मित्रता थी। केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम कभी न जाते थे लेकिन कला-प्रदर्शनी में जाना अपना पहला कर्तव्य समझते थे। नतीजा जो निकलना था वही निकला। पहले साल में फेल। दूसरे साल में सोचा सिफारिश कराई जाये। यह पूरा प्रसंग कुछ इस तरह मुड़ गया कि सिफारिश करने वाला ही असुविधा में पड़ गया। हमें मालूम था कि केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम फेल हो ही जाएंगे। पढ़ाने और परीक्षा लेने वाले अध्यापक के पास हम तीनों मित्र सिफारिश करने वाले सज्जन के साथ पहुँचे। सिफारिश करने वाले सज्जन ने बातचीत शुरू की, 'ये तीनों आपके स्टूडेंट मुझे यहां लाये हैं..' अध्यापक बात काटकर बोले, 'ये तीनों? नहीं, ये तो मेरी क्लास में नहीं हैं।' सिफारिश करने वाले अध्यापक सटपटाए। जल्दी ही समझ गये कि मामला क्या है। उन्होंने हम लोगों की तरफ अजीब नजरों से देखा। उन्हें लगा कि हमने उन्हें बहुत गलत काम के लिए राजी कर लिया था और धोखा दिया था। हमने नजरें झुकाकर भरी आवाज में कहा, 'जी, हम आपकी क्लास में ही हैं।'


अध्यापक ने फिर ध्यान से देखकर बड़ी उपेक्षा-भरी आवाज में कहा, 'नहीं, ये लोग मेरी क्लास में नहीं है। इन्हें क्लास में कभी नहीं देखा।'


अब काटो तो खून नहीं। बेशर्मों की तरह सिर झुकाए खड़े रहे। ये सच है कि हम तीनों दोस्त क्लास में न जाते थे। उसके अलावा हमें कहीं भी देखा जा सकता था। बी.एस.सी. के दूसरे साल में थे। सेशन समाप्त हो गया था। हाजिरी निकली तो हम सबकी हाजिरियां कम थीं और इम्तिहान में नहीं बैठ सकते थे। पढ़ाई या इम्तिहान की तैयारी नहीं थी। हॉस्टल तथा फीस आदि का जो पैसा चुकाना था वह बहुत ज्यादा था, क्योंकि हम उसे उड़ा गये थे। हम तीनों हॉस्टल के कमरे में बैठे सोच रहे थे कि इस मुसीबत से कैसे निबटा जाए। कोई रास्ता न नजर आता था। फिर एक ने सलाह दी कि यार ऐसा किया जाये कि किताबें बेल डाली जाएं। तीनों अपनी-अपनी किताबें बेचेंगे तो इतने पैसे आ जाएंगे कि एक रम की बोतल खरीदी जा सके। एक फिल्म देखी जा सके और घर वापस जाने का टिकट आ जाये। यह राय सबको पसंद आई। वैसा ही किया गया।


नशे की आदत हम सबको यानी तीनों दोस्तों को थी। तीनों सिगरेट पीते थे। कभी-कभी जब पैसा ज्यादा होते थे या घर से मनीआर्डर आता था तो 'ब्लैक फॉक्स` की तंबाकू खरीदते थे और पाइप पिया करते थे। शराब की आदत तो न थी पर पीना पंसद करते थे और जब पैसे होते थे तो शहर जाते थे जहां एक 'भगवान रेस्टोरेंट` नाम का होटल था। उसके पिछले केबिनों में बैठकर शराब पी जा सकती थी। वही हमारा अड्डा होता था।


मैंने जिंदगी में जब पहली बार पी तो मुझे बहुत मजा आया। जिस मित्र ने पिलाई थी उससे मैंने बहुत शिकायत की कि उसने पहले क्यों नहीं पिलाई। शहर से शराब पीकर रात में दस-ग्यारह बजे सुनसान सड़क पर टहलते हुए हम लोग हॉस्टल वापस आते थे। लगता था कि पूरा 'इंडिया अपने बाप` का है। यानी ऐसा मौज-मस्ती की हालत होती थी कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस तरह सड़कों पर शराब के नशे में टहलते हुए हम लोग 'मजाज़` की नज़्म 'अवारा` गाया करते थे।


एक बार पैसे कम थे हम शराब पीना चाहते थे। उतने पैसे में क्वार्टर भी न आता था। इसलिए सोचा कि चलो भांग खाकर देखते हैं। हो सकता है मजा आ जाए। पानवाले की दुकान पर भांग मिला करती थी। हमने उससे पूछा कि कितनी-कितनी गोलियां खानी चाहिए कि मजा आ जाए। उसने कहा कि चार-चार गोलियां खा लो। मैं समझ गया कि साला अपनी भांग बेचने के लिए हमें चूतिया बना रहा है। लेकिन मेरे दोस्तों ने कहा कि नहीं यार, जब वह चार-चार कह रहा है तो चार-चार ही खानी चाहिए। गोलियां काफी बड़ी, यानी कंचे की बड़ी गोलियों जैसी थीं। बहरहाल, हमने चार-चार खा लीं। पानी के साथ सटक गये और सिनेमा में जाकर बैठ गये। थोड़ी देर के बाद मुझे लगा कि मेरे पैर नहीं है और जब इंटरवल होगा तो मैं कैसे उठूंगा? मैंने दूसरे दोस्तों से पूछा कि क्या उनके पैर हैं? उन दोनो ने भी बताया कि उनके पैर नहीं है। अब बड़ी समस्या खड़ी हो गई। खैर, फिल्म खत्म होने के बाद हम किसी तरह बाहर आ गये। और फिर हम तीनों का बुरा हाल हो गया। उल्टियां करते-करते पस्त पड़ गये। कान पकड़ने और तौबा करने लगे कि कभी भांग नहीं खाएंगे। भांग खाने के प्रयोग के बाद एक बार कम पैसे में नशा करने की गरज से हम ताड़ी पीने भी गये थे।


हम तीनों दोस्तों में एक बड़ा पुराना पापी था। हम सब उसे इसी वजह से पापी कहकर पुकारते थे। पापी का असली नाम नामदार हुसैन रिजवी था। लेकिन दोस्त उसे पापी कहते थे। पापी शायरी भी करता था। उसका तखल्लुस 'वफा` या 'वफा साब` कहकर पुकारा जाता था। दूसरों के सामने हम लोग भी उसे 'वफा` कहते थे। 'वफा` भी एक तरह से हमारा अध्यापक था उसने हमें सिगरेट पीना, शराब पीना और रंडियों के कोठों पर जाना सिखाया था। 'वफा` एक पुराने ताल्लुकेदार का इकलौता लड़का था। वह ग्यारह-बारह साल का ही था कि उसके अब्बाजान का इंतकाल हो गया था। मां उसे बहुत चाहती थी। पैसा भी अच्छा-खासा था। यही वजह थी कि 'वफा` उन सब कामों में माहिर हो गया जो हमें नहीं आते थे।


मेरा एक और शिक्षक मेरा तीसरा दोस्त था। उसका नाम वाहिद था। वह चित्रकार था। अच्छे चित्र बनाने, लड़कियों को फंसाने और अपना काम निकाल लेने की कला में वह माहिर था। इन तीनों कलाओं में उसका जवाब नहीं था। एक बार उसका एक पेपर खराब हो गया। हम सब सोच रहे थे कि किस तरह उसे पास कराया जाये। उसने कहा कि किसी सिफारिश की जरूरत नहीं है। वह खुद परीक्षक के पास जाएगा और अपनी सिफारिश करेगा। हम लोगों ने सोचा कि साला पागल हो गया है। जरूर बुरी तरह अपमानित होकर वापस आएगा। लेकिन वह गया और आकर बोला कि पास हो जाएगा। हमें यकीन नहीं आया, लेकिन जब रिजल्ट निकला तो वह पास था। फिर उसने हमें विस्तार से बताया कि उसने परीक्षक से क्या बात की थी और कैसे उसे इस बात पर तैयार कर लिया था कि उसे पास कर दिया जाए। लड़कियों को फंसाने की कला में भी वह माहिर और शातिर था। लड़कियों और औरतों के बारे में उसकी राय अंतिम और प्रामाणिक सिद्ध हुआ करती थी। जैसे लड़कियों को देखकर ही बता देता था कि वह कैसी है? क्या पंसद करती है, उसके कमजोर पक्ष क्या है? अच्छाई क्या है? उस पर किस तरह 'अटैक` लेना चाहिए। लड़कियों से संबंध बनाने की प्रक्रिया को वह 'अटैक` लेना कहा करता था। उसका यह मानना था कि संसार में किसी भी आदमी को पटाया जा सकता है। उससे काम निकाला जा सकता है। लेकिन सबको पटाने का रास्ता एक नहीं है। हर आदमी के अंदर तक पहुंचने के लिए एक नये रास्ते की खोज करनी पड़ती है। वह केवल ऐसी बातें ही नहीं करता था, बल्कि प्रयोग करके भी दिखाता था। एक बार एक लड़की को हम तीनों ने किसी कला प्रदर्शनी में देखा। लड़की पसंद आई। हमने चुनौती दी। उससे कहा कि वह लड़की को हमारे साथ चाय पीने के लिए तैयार करके दिखा दे तो हम जानें कि वह बड़ा लड़कीमार है। उसने कहा कि चाय पिलाने के पैसे उसके पास नहीं है। अगर हम दोनों उसे पैसे दे दें तो वह लड़की को चाय पीने के लिए आमंत्रित कर सकता है। हम तैयार हो गए। वाहिद गया और आया बोला चलो तैयार है।


वाहिद की दसियों लड़कियों से दोस्ती थी और वे सब समझती थीं कि वह बहुत सीधा-सादा, सम्मानित और कलाकार किस्म का आदमी है। वह कभी-कभी झोंक में आकर लड़कियों के बारे में अपने मौलिक विचार बताया करता था। कहता था हर औरत प्रशंसा पसंद करती है पर यह प्रशंसा कैसी हो, किस गुण की हो और कितनी हो यह बहुत गंभीर बात है। दूसरी बात यह बताता था कि हर औरत एक बंद चारदीवारी की तरह होती है। लेकिन आप जिधर से चाहें रास्ता खोल सकते हैं। यदि चारदीवारी को वास्तव में चारदीवारी समझा तो कभी सफल नहीं हो सकते। इसी तरह की न जाने कितनी बातें वह किया करता था। कभी-कभी उसकी बातें 'वेग` भी हुआ करती थीं। जैसे कहता था, औरतें जिसे सबसे ज्यादा चाहती हैं उससे सबसे ज्यादा डरती हैं। औरतों से 'एप्रोच` करने की पहली शर्त वह मासूमियत मानता था। वह कहता था कि कहीं धोखे से भी आपने अपने को घाघ सिद्ध कर दिया तो औरत पास नहीं आएगी।


आमतौर पर महीने के पहले हफ़्ते में घर से मनीआर्डर आता था और दूसरे हफ़्ते तक हम लोग खलास हो जाते थे। उसके बाद शाम को चाय के पैसे न होते थे। मुफ़्त चाय पीने के चक्कर में हम लोग परिचित लोगों के घरों के चक्कर काटते थे। अक्सर तो ये भी होता था कि कई घरों के चक्कर काटने और कई मील का पैदल सफर करने के बाद भी चाय न मिल पाती थी। वैसे, हमारे चाय पीने के इतने अधकि अड्डे थे कि कहीं-न-कहीं कामयाबी हो ही जाती थी। जब हर तरफ से थक-हार जाते थे तो युनिवर्सिटी कैंटीन आ जाते थे। कैंटीन के ठेकेदार खां साहब से हमारे संबंध थे। वे न सिर्फ चाय, बल्कि विल्स फिल्टर की सिगरेट और शानदार पान तक खिलाया करते थे। खां साहब शायर थे। अच्छे शायर थे। 'कमाल` तखल्लुस रखते थे। रामपुर के रहने वाले थे। 'खां साहबियत` और 'शेरिअत` उनके व्यक्तित्व के बड़े कलात्मक ढंग से घुल-मिल गई थी। वे उर्दू में एम.ए. थे। वैसे भी अनुभवी आदती थे। बातचीत करने के बेहद शौकीन थे। पैसे को हाथ का मैल समझते थे। उन्होंने दरअसल क्लासिकी शायरी की तरफ हम लोगों को खींचा था। कभी-कभी मीर तकी 'मीर` के शेर सुनाने से पहले कहते थे कि यह शेर किसी लोकप्रिय गजल का नहीं है। उन्होंने 'कुल्लियात` से खुद ढूंढकर निकाला है। शायरी पर उनकी बातें बहुत दिलचस्प और मौलिक हुआ करती थीं। उनकी कैंटीन में विश्वविद्यालय के दूसरे शायर भी आते थे और देर रात तक महफिल जमी रहती थी। खां साहब अपने आप में एक संस्था थे। एक शेर पर चर्चा करते-करते कभी रात के बारह बजे जाया करते थे। शायरी के अलावा खां साहब अपने जीवन के लंबे अनुभवों का निचोड़ बताया करते थे। हमें लगता था कि जीवन अपनी परतें खोल रहा है।


खां साहब फिल्मों के भी रसिया थे। खासतौर पर अच्छी कलात्मक फिल्में दिखाने हम सबको ले जाते थे। तरीका काफी शाही किस्म का होता था। रिक्शे बुलवाए जाते थे। हम सब सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पूरा खर्चा खां साहब करते थे हद यह है कि इंटरवल में चाय के पैसे भी किसी को न देने देते थे। फिल्म के बाद उस पर विस्तार से बातचीत होती थी। विश्वविद्यालय के सभी नामी-गिरामी शायरों से उनकी दोस्ती थी जो अक्सर शामें उनकी कैंटीन में गुजारते थे। खां साहब को हर चीज या काम उसकी चरम सीमा तक कर में मजा आता था। कहते थे, तुम लोग क्या पीते हो, मैंने एक जमाने में इतनी पी है कि छ: महीने तक नशा ही नहीं उरतने दिया।


खां साहब की कैंटीन के अलावा हमारे मुफ़्त चाय पीने के अड्डे प्राध्यापकों के घर थे। मजेदार बात यह कि वे सब प्राध्यापक वे न थे जो हमें साइंस के विषय पढ़ाते थे। साइंस पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के बारे में हमारे अच्छे विचार न थे। हम उन्हें बिलकुल खुरा, नीरस और शुष्क समझते थे। साहित्य पढ़ाने वाले लोगों के घरों में दिलचस्प साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। चाय पीने का मजा आता था। इन घरों के अलावा हमारा चाय पीने का अड्डा एक और भी था। शहर से कुछ दूर एक पुराने किस्म की कोठी में एक पुराने जमाने के रईस- जिनका नाम राजा मोहसिन अली खां उर्फ मीर साहब रंगेड़ा और राजा साहब छदामा था, रहते थे। उनकी उम्र पचास के आसपास थी। उनसे हम लोगों की दोस्ती हो गयी थी। राजा साहब सनकी और औबाश किस्म के आदमी थे। हमेशा अतीत के नशे में चूर रहा करते थे। लेकिन बीते जमाने के किस्से सुनाने की कला में बड़े माहिर थे। उनका बयान बहुत रोचक और छोटी-छोटी 'डिटेल्स` से भरा होता था। उनकी स्मरण शक्ति भी जबरदस्त थी। मिसाल के तौर पर वे यह बताते थे कि तीस साल पहले जब वे किसी आदमी से मिलने गये थे तो उन्होंने किस रंग का सूट पहना था और कफ में जो बटन लगाए गए थे वे कैसे थे। राजा साहब की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी थी। अब वे सिर्फ बातों के धनी थे। उनके मनपसंद किस्से उनकी अय्याशियों की लंबी दास्तानें थीं। वे अनगिनत थीं। दास्तानें बताते हुए वे पूरा मजा लेते थे। औरतों के नख-शिख-वर्णन में उन्हें महारत हासिल थी। उसके साथ-ही-साथ संभोग का वर्णन काफी मनोयोग से करते थे।


कभी-कभी राजा साहब के यहां एक प्याली चाय और दालमोठ बहुत महंगी पड़ जाया करती थी। जैसे एक दिन चाय के लालच में हम थके-हारे उनके घर पहुंचे तो पता नहीं उनका क्या मूड था, बिना कुछ कहे-सुने एक अंग्रेजी की किताब के बीस पन्ने पढ़कर सुना दिए। फिर बताया, यह १८९१ का पटियाला गजेटियर है। इसमें मेरे खानदान का जिक्र है।


उनकी कई सनकें थीं। उनमें से एक यह थी कि अब तक अपने आपको बहुत बड़ा सामंत समझते थे। उन्होंने काले मखमल पर सुनहरे बेलबूटों वाला एक कोट सिलवाया था जिसे वे 'चीफ कोट` कहा करते थे। उस 'चीफ कोट` को पहन वे रिक्शे में बैठकर पूरे शहर का एक चक्कर लगाते। ऐसे मौकों पर उनके साथ होने में हम लोगों को बड़ी शर्म आती थी, लेकिन एक प्याली चाय की खातिर सब कुछ करना पड़ता था।


चाय पीने का एक और अड्डा गर्ल्स कॉलेज की एक सुंदर प्राध्यापिका का घर भी था। प्राध्यापिका बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि उन्हें पहली बार देखकर ही हम तीनों दोस्त उन पर आशिक हो गये थे। और तय किया था कि वे इतनी सुंदर हैं कि उन पर कोई अपना अकेला अधिकार नहीं जमाएगा। जब भी कोई उनके पास जाएगा, अकेला नहीं जाएगा। इस समझौते पर हम कायम रहे। सुंदर प्राध्यापिका गर्ल्स हॉस्टल के अंदर रहती थीं। वे वार्डेन थीं। अकेली रहती थीं। उनके घर में शामें गुजारना इतना सुखद होता था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हम इतना तो सीख ही गये थे कि तांत को इतना नहीं तानते कि वह टूट जाए। इसलिए महीने में दो-तीन ही बार उनके पास जाते थे। उनकी हंसी ऐसी थी कि हम सिर्फ उसी पर फिदा थे।


किसी भी विश्वविद्यालय की यह विशेषता होती है कि जो उससे चिमटे रहते हैं वे उपकृत होते हैं। हम फेल होते थे। हाजिरी कम होती थी। इम्तिहान में नहीं बैठाए जाते थे, लेकिन विश्वविद्यालय से चिमटे हुए थे। इस तरह रगड़ते-रगड़ते बी.एस.सी. पास हो गये। हम तीन दोस्त थे और तीनों को तीन-तीन डंडे मिले थे। यानी तीन नंबर हमारी किस्मत में लिख गया था। लेकिन हम खुश थे। मेरा दो अन्य मित्रों को जैसे ही डिग्री मिली उन्हें अपने राष्ट्रपति तक हो जाने के रास्ते साफ नजर आने लगे और उन्होंने पढ़ाई को धता बताई।


मैंने सोचा कि मैं विश्वविद्यालय में कुछ और पढूं। क्या पढूं इसका पता न था। इतना तो तय थ कि साइंस के किसी विषय में एम.एस.सी करने से अच्छा था कि कहीं डाका मारता और जेल चला जाता। इसलिए साहित्य ही बचता था। किसी ने कहा उर्दू में एम.ए. कर डालो। लेकिन समस्या यह थी कि उस समय मैं हिंदी में लिखने लगा था। हाईस्कूल तक की पढ़ाई हिंदी में हुई थी। उर्दू बहुत कम, और लिखना तो बिलकुल नाम बराबर ही, जानता था। इसलिए सोचा उर्दू से अच्छा है हिंदी में एम.ए. किया जाए। किसी ने कहा साहित्य में ही एम.ए. करना है तो अंग्रेजी में करो। लेकिन उस समय तक अंग्रेज-विरोधी बन गया था इसलिए कि अंग्रेजी बिलकुल न आती थी। या इतनी कम आती थी कि मुझे उससे शर्म आती थी। बहरहाल, हिंदी के पक्ष में अधकि मत पड़े।

जब बी.एस.सी. में पढ़ता था उस जमाने में हिंदी विभाग से कोई विशेष लेना-देना न था। हां, मुझे साहित्य लिखने की प्रेरणा देने वाले और विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण व्यक्ति रामपाल सिंह हिंदी में पी-एच.डी. कर रहे थे। दरअसल उन्होंने ही मुझे हिंदी में लिखने और छपने आदि की प्रेरणा दी थी। डॉ. सिंह के बयान के बगैर यह पूरा विवरण अधूरा है। इसलिए मैं उनका बयान सामने रखना चाहूंगा। डॉ. सिंह विश्वविद्यालय में इस रूप में जाने जाते थे कि जिसका कोई नहीं है उसके डॉ. सिंह है। उनके पास कोई भी जा सकता है, कोई भी कुछ कह सकता है और कोई भी मदद की पूरी उम्मीद कर सकता है। मैंने हिंदी में जब लिखना शुरू किया तो उनके पास गया था। और उन्हें उनकी साख के अनुरूप ही पाया था। दरअसल विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के वे एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उन्होंने ही मुझसे कहा कि हिंदी में एम.ए. करो।


लेने को तो मैंने हिंदी में दाखिला ले लिया था लेकिन एक बहुत बड़ी दिक्कत थी जो मुझे बाद में पता चली। वह यह कि जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ता था वहां हिंदी की स्थिति अन्य विषयों की तुलना में 'अछूत` जैसी थी। लोग मानते थे कि सबसे गए-गुजरे, सबसे बेकार या कहें कंडम या कहिए कूड़ा या कहिए बोगस या कहिए मूर्ख या कहिए घोंचू या कहिए बेवकूफ या कहिए मंदबुद्धि या कहिए गधे ही हिंदी पढ़ते और पढ़ाते हैं मतलब यह कि हिंदी की सामाजिक स्थिति बहुत ही खराब थी। जब मैं लोगों से कहता था कि मैंने हिंदी में दाखिला लिया है, तो मेरी तरफ इस तरह देखते थे जैसे मैं पागल हो गया हूं या अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। या लोग सिर्फ मुस्कराते थे या मेरे नाम के बाद 'दास` शब्द जोड़ मुझे कबीरदास और तुलसीदास जैस कहकर मजाक उड़ाते थे। मैं इससे काफी परेशान हो गया था।


हिंदी के बारे में लोगों के मन में न केवल बड़े पूर्वाग्रह थे बल्कि एक अजीब तरह की घृणा और उपेक्षा के भाव भरे हुए थे। मैं यह समझ पाने में असमर्थ था।


हिंदी विभाग में पढ़ाई शुरू हुई। पहले दिन एक प्राध्यापक के कमरे में गया। क्लास को देखा। दो लड़कियां थीं, यह देखकर जान में जान आ गई। एक बुर्का पहने थी। खैर कोई बात नहीं, थी तो लड़की ही। प्राध्यापक कुछ मजेदार, मसखरे, लेकिन बहुत सरल आदमी थे। उन्होंने हम सबसे कहा कि हम क ख ग घ लिख डालें। पहले तो हम समझे कि वे मजाक कर रहे हैं पर उन्होंने गंभीरता से कहा था। पूरी क्लास ने क ख ग घ लिखा तो पता चला कि नब्बे प्रतिशत लड़कों को क ख ग घ लिखना नहीं आता। प्राध्यापक महोदय ने कहा कि यह कोई अजीब बात नहीं है। हिंदी में जो एम.ए. कर चुके हैं उन्हें क ख ग घ लिखना नहीं आता। यह पहला पाठ था। हमें हमेशा याद रहा कि हमें कहां से शुरू करना है। लेकिन सारे प्राध्यापक ऐसे न थे जो जीवन-भर के लिए एक पाठ पढ़ा दें। एक वरिष्ठ प्रोफेसर हमें हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे। वे विभाग के सबसे बड़े और वरिष्ठ प्रोफेसर थे। उनकी कक्षा कभी-कभी ही होती थी क्योंकि अच्छी चीजें रोज नहीं मिलतीं। उन्होंने इतनी कुशलता और लगन से पढ़ाया कि यदि उनका अनुकरण कोई और हिंदी अध्यापक करे तो जरूर नौकरी से निकाल दिया जाए। उन्होंने हमें कुल जमा चालीस मिनट में हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ा दिया था। वरिष्ठ होने के कारण प्राध्यापक महोदय सदा व्यस्त रहते थे। व्यस्त रहने के कारण उनका क्लास नहीं हो पाता था। होते-हुआते परीक्षाएं निकट आ जाती थीं। तब वह सुनहरा अवसर आता था कि क्लास होती थी। दुबले-पतले, शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और खद्दर की टोपी धरण किए प्रोफेसर साहब अपने विशाल कमरे की विशाल मेज के पीछे विशाल कुर्सी में इस तरह लेट जाते थे कि कभी-कभी हमें केवल उनकी टोपी का ऊपरी भाग ही दिखाई देता था। वे रामचन्द्र शुक्ल का 'हिंदी साहित्य का इतिहास` खोल लेते थे। पढ़ाई इस तरह शुरू होती थी 'आदिकाल, इसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। वीरगाथा मतलब वीरों की गाथा। स्पष्ट है न?' हम सब एक स्वर में कहते थे, 'जी हां, स्पष्ट है।' अब भक्तिकाल। 'भक्ति तो तुम सब जानते ही हो. . .अरे वही राम-भक्ति, कृष्ण-भक्ति. . .समझे? सूर पढ़ा है तुम लोगों ने, तुलसीदास पढ़ा है। जायसी को पढ़ा है. . .वही भक्तिकाल है।' प्रोफेसर साहब इस विद्वत्तापूर्ण भाषण के दौरान किताब के पृष्ठ तेजी से पलटते जाते थे। 'अब आता है रीतिकाल।' रीतिकाल पर वे हंसते थे। उनके पीले बड़े-बड़े दांत बाहर निकल आते थे। क्लास के लड़के मुस्कराते थे। लड़कियां शरमाती थीं। 'तो रीतिकाल मैं तुम लोगों को पढ़ा देता पर नहीं पढ़ाउंगा क्योंकि तुम्हारी क्लास में कन्याएँ हैं।' दांतों से तरल पदार्थ बहने लगता था। दांत शांत हो जाते थे। 'चलो आगे बढ़ो, आधुनिक काल। आधुनिक का मतलब है मॉडर्न। तुम सभी मॉडर्न हो। जब तुम सब स्वयं मॉडर्न हो तो मैं तुम्हें मॉडर्न काल क्या पढ़ाउं? मैं तो तुम्हारी तुलना में मॉडर्न नहीं हूं।' दांत उनके मुंह में चले जाते थे। किताब बंद हो जाती थी। हिंदी साहित्य का इतिहास खत्म हो जाता था। तब प्रोफेसर कहते थे. . .'तुम लोग सौभाग्यशाली हो। आराम से हॉस्टल में रहते हो। पका-पकाया खाना मिल जाता है। टहलते हुए क्लास में चले आते हो। पुस्तकालय उपलब्ध हैं। बिजली की रोशनी है, नल का पानी है। तुम लोग क्या जानो कि मैंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट उठाए हैं। मेरा गांव बहुत छोटा था। वहां कोई स्कूल न था। आठ मील दूर, नदी के उस पर एक बड़ा गांव था जहां पाठशाला थी। हमारे गांव से दो-तीन लड़के पाठशाला जाते थे। हमें अंदर घुसकर नदी पार करनी पड़ती थी। कभी-कभी पानी ज्यादा होता था तो कपड़े और रोटी की पोटली सिर पर रख लेते थे। नदी के उस पार छ: मील चलना पड़ता था। तब पाठशाला पहुंचते थे। पंडित जी के चरण छूते थे। पंडित हमें जंगल से लकड़ी बीनने भेजते थे। किसी को कुएं से पानी भर लाने भेजते थे। मैं छोटा था तो मुझसे कपड़े धुलवाते थे। किसी से चूल्हा जलवाते थे। मतलब हम सब मिलकर पंडित जी का पूरा काम करते थे। वे भोजन करते थे। हम लोग भी इधर-उधर बैठकर रोटी खाते थे। उस गांव में बंदर बहुत थे। कभी-कभी बंदर हमारी रोटी ले जाते थे। तब हमें दिन-भर भूखा रहना पड़ता था। वापसी पर काफी देर हो जाती थी तो भेड़ियों का डर होता था, समझे?' हमें यह लगता था कि प्रोफेसर साहब हम लोगों से बदला ले रहे हैं या इस पर खिन्न हैं कि वो बदला नहीं ले सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि वे हमें इस योग्य ही नहीं समझते थे कि हमसे बदला लें। वे केवल शोध छात्रों को यह सम्मान देते थे। उनके शोध छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वे अपने विषय के पंडित होने के अतिरिक्त भैंसों की देखभाल करने की कला में भी निपुण हो जाते थे। कितना अच्छा था कि उनके सामने दो रास्ते खुल जाते थे। हिंदी के अध्यापक न बन पाते तो भैंस पालने का व्यवसाय शुरू कर सकते थे।


एम.ए. में हमारे साथ दो लड़कियां भी थीं। एक लड़की बुर्का वाली, दूसरी लड़की कई बुर्के उतारकर क्लास में आती थी। एक और लड़का भी क्लास में था जो साहित्यिक रुचि का था। हम तीनों की दोस्ती हो गई थी। मैं, आमोद और किरण बंसल साथ-साथ चाय पीने जाते थे। किसी लड़की के साथ कैंटीन जाना उन दिनों उस विश्वविद्यालय में इतनी बड़ी बात थी कि उसकी चर्चा हो जाया करती थी। सो विभाग में इस बात की चर्चा थी कि हम दो लड़के एक लड़की के साथ चाय पीने जाते हैं।

विभाग में एक और वरिष्ठ अध्यापक थे। उनका क्लास सुबह सवा आठ बजे होता था। वे हमेशा लेट आते थे। हम लोग भी हमेशा लेट जाते थे। जाड़े के दिनों में लेट आकर वे धूप खाने तथा दूसरे अध्यापकों से गप्प मारने लॉन के एक कोने में खड़े हो जाते थे। दूसरे कोने में क्लास के लड़के भी यही पवित्र काम करते थे। लड़कों को देखकर प्राध्यापक महोदय कहते थे, चलो क्लास में बैठो, मैं आता हूं। पर हमें मालूम था कि यदि हम ठंडी क्लास में जाकर बैठ भी गये तो वे घंटा बजने में पांच मिनट पहले ही क्लास में आयेंगे। हम न जाते थे। आखिरकार घंटा बजने में पांच मिनट पहले वे तेजी से क्लास की तरफ बढ़ते थे। हम उनसे पहले भागकर क्लास में चले जाते थे। वे हाजिरी लेने के बाद कहते थे हिंदी में एम.ए. पास करना संसार का सबसे सरल काम है। तुम लोग चिंता न करो। यह वाक्य वे अक्सर बोलते थे। हम से ही नहीं, जो लड़के पास हो चुके थे वे भी बताते थे क?%A

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