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याददाश्त

खोल कर, आज की तारीख खोज कर, लिखने के इरादे से बैठा ही था कि डायरी बंद कर देनी पड़ी. घंटी बजी, जाना पड़ा. डर लगा कोई ‘लंबी-बैठक’ वाला पुराना दोस्त न हो. महरी को देख कर याद आया कि फिर आज भजिये खाने की बात सुबह से सोची हुई थी. मैंने कहा – “भई... आज भाजी नहीं, सिर्फ भजिया बनाओ. अपने अनुप्रास पर मुग्ध था कि बाई, जिसका नाम कॉलोनी की हर बंगाली-बाई की तरह ‘मालती’ ही था ने, बिना भीतर आये हर दिन की तरह कह दिया- “शाब! फ्रिज में शोब्जी है ही नहीं...! मैं कित्ती दफा आपको बोला...कुछ ला कर नईं रखा....” मैं अचानक निराश हो गया. सात दिन से भजिये खाने की तबीयत है, और कोई बना ही नहीं रहा- क्या ज़माना आ गया है, बाई तक भी नहीं, जो सब्जी न होने के कारण मेरा भजिये खाना स्थगित करवाती जा रही है!

मैंने कहा- देखो… क्या अंदर मिर्च हैं ? प्याज़ ? आलू ? बेंगन ? अरबी ? गोभी? या पालक ?... भजिये तो किसी के भी बन सकते हैं न...!”

वह कुछ बनाने के मूड में नहीं दिख रही थी- कहने लगी- “शाब! फ्रिज में शोब्जी है ही नहीं...मैं कित्ती दफा आपको बोला...आप परसों कहता बी ता लाने को!”

मेरा दिमाग भन्नाया और मैंने उसे नाराज़ सा होते हुए वापस लौट जाने को कह दिया! वह जैसे मेरी इसी बात के इंतज़ार में थी...उलटे पाँव फ़ौरन सीढ़ियाँ उतर गयी. अपनी याददाश्त पर भयंकर कुपित होते मैं फ्रिज की तरफ बढ़ा. कितने दिन से, जब से मेरी बीवी, अपने भाई के यहाँ गयी है, बाई लगातार मुझ से सब्जियां लाने को कह रही है- और ये जो मैं हूँ अहमक कि कविता छोड़ कर कहानी लिखने के नए चक्कर में सब कुछ भूल जाता हूँ ! “हे भजियो! तुम्हारे अष्टम भाव में गोचर में ज़रूर उच्च का शनि है, जो मैं तुम्हें खा नहीं पा रहा हूँ-” झल्ला कर मैंने सोचा और फ्रिज खोला...पूरा फ्रिज सब्जियों से भरा था!

मुझे एकदम याद आ गया- कल ही शाम मैं बड़ी मंडी से न केवल मिर्च प्याज़, आलू, बेंगन, अरबी, गोभी, पालक लाया था- जिनके भजिये मुझे बनवा कर खाने थे, पर दूसरी हर सब्जी भी, जो बाजार में मिल रही थी, ताकि बार-बार बाज़ार न जाना पड़े!

फिर मुझे याद आया कि मंडी से लौटते समय फ्लैट की सीढ़ियों पर ही तो मालती मिल गयी थी, जिसने सब्जियों के तीनों में से, दो भारी थैले शायद दयावश, मुझ बुड्ढे आदमी से ले लिए थे...

फिर मुझे यह भी याद आया कि मालती ने ही फ्रिज में वे सारी सब्जियां करीने से जमाई भी थी, तब जब मैं हकू शाह की नई किताब में डूबा था! बहरहाल, ये सोच कर मुझे बड़ा धक्का लगा कि फ्रिज में सब्जी न होने की गलत बात सुन कर आज शाम एक बार फिर मैं अपने पसंदीदा भजिये खाने से वंचित रहा!

अब, जब इस ‘दुर्घटना’ को मैं अपनी डायरी में दर्ज करना चाह रहा हूँ, सोच में पड़ गया हूँ कि क्या मालती ने मुझ से झूठ बोला था ? वह कामचोर है, या ठीक मेरी ही तरह बुरी याददाश्त की शिकार, मैं बिलकुल नहीं जान पा रहा !

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