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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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माया– पर आपने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया?

प्रेमशंकर ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा– अभी तो नहीं दिया।

माया– आप समझते हैं कि सभा में प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा?

प्रेम– हाँ, सम्भव है।

माया– तब तो ज़मींदार लोग असामियों को कुचल ही डालेंगे।

प्रेम– हाँ, और क्या?

माया– अभी से इस आन्दोलन की जड़ काट देनी चाहिए। आप इस पत्र का जवाब दे दें तो बाबू दीपकसिंह को अपना प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हो।

प्रेम– ज्ञानशंकर क्या कहेंगे?

माया– मैं जहाँ तक समझता हूँ, वह इस प्रस्ताव का सर्मथन न करेंगे।

प्रेम– हां, मुझे भी ऐसी आशा है।

मायाशंकर चचा की बातों से उनकी चित्त-वृद्धि को ताड़ गये।

वह जब से अपने इलाके का दौरा करके लौटा था, अक्सर कृषकों की सुदशा के उपाय सोचा करता था। इस विषय की कई किताबें पढ़ी थीं और डॉक्टर इर्फानअली से भी जिज्ञासा करता रहता था। प्रेमशंकर को असमंजस में देख कर उसे बहुत खेद हुआ। वह उनसे तो और कुछ न कह सका, पर उस पत्र का प्रतिवाद करने के लिए उसका मन अधीर हो गया। आज तक उसने कभी समाचार-पत्रों के लिए कोई लेख न लिखा था। डरता था, लिखते बने या न बने सम्पादक छापें या न छापें। दो-तीन दिन वह इसी आगा-पीछा में पड़ा रहा। अन्त में उसने उत्तर लिखा और सकुचाते, कुछ डरते डॉक्टर इर्फानअली को दिखाने ले गया। डॉक्टर महोदय ने लेख पढ़ा तो, चकित हो कर पूछा– यह सब तुम्हीं ने लिखा है?

माया– जी हाँ, लिखा तो है, पर बना नहीं।

इर्फान– वाह! इससे अच्छा तो मैं भी नहीं लिख सकता। यह सिफत तुम्हें बाबू ज्ञानशंकर से विरासत में मिली है।

माया– तो भेज दूँ, जायेगा?

इर्फान– छपेगा क्यों नहीं? मैं खुद भेज देता हूँ।

प्रेमशंकर रोज पत्रों को ध्यान से देखते कि दीपकसिंह के पत्र का किसी ने उत्तर दिया या नहीं, पर आठ-दस दिन बीत गये और आशा न पूरी हुई। कई बार उनकी इच्छा हुई कि कल्पित नाम से इस लेख का उत्तर दूँ। लेकिन कुछ तो अवकाश न मिला, कुछ चित्त की दशा अनिश्चित रही, न लिख सके। बारहवें दिन उन्होंने पत्र खोला तो मायाशंकर का लेख नजर आया। आद्योपान्त पढ़ गये। हृदय में एक गौरवपूर्ण उल्लास का आवेग हुआ। तुरन्त श्रद्धा के पास गये और लेख पढ़ सुनाया। फिर इर्फानअली के पास गये। उन्होंने पूछा– कोई खबर है क्या?

प्रेम– आपने देखा नहीं, माया ने दीपकसिंह के पत्र का कैसा युक्तिपूर्ण उत्तर दिया है?

इर्फान– जी हाँ, देखा। मैं तो आपसे पूछने आ रहा था। कि यह माया ने ही लिखा है या आपने कुछ मदद कि है?

प्रेम– मुझे तो खबर भी नहीं, उसी ने लिखा होगा।

इर्फान– तो उसको मुबारकबाद देनी चाहिए, बुलाऊँ!

प्रेम– जी नहीं! उसके इस जोश को दबाने की जरूरत है। ज्ञानशंकर यह लेख देखकर रोयेंगे। सारा इलजाम मेरे ऊपर आयेगा। कहेंगे कि आपने लड़के को बहका दिया, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैंने उसे यह पत्र लिखने के लिए इशारा तक नहीं किया। इसी बदनामी के डर से मैंने नहीं लिखा।

इर्फान– आप यह इलजाम मेरे सिर पर रखा दीजिएगा। मैं बड़ी खुशी से इसे ले लूँगा।

प्रेम– कल उनका कोप-पत्र आ जायेगा। माया ने मेरे साथ अच्छा सलूक नहीं किया?

इर्फान– भाभी साहिबा का क्या ख्याल है?

प्रेम– उनकी कुछ न पूछिए। वह तो इस खुशी में दावत करना चाहती हैं। प्रेमशंकर का अनुमान अक्षरशः सत्य निकला। तीसरे दिन ज्ञानशंकर का कोप पत्र आ पहुँचा। आशय भी यही था– मुझे आपसे ऐसी आशा न थी। साम्यवाद के पाठ पढ़ा कर आपने सरल बालक पर घोर अत्याचार किया है। उसका अठारहवाँ वर्ष पूरा हो रहा है। उसे शीघ्र ही अपने इलाके का शासनधिकार मिलने वाला है। मैं इस महीने के अन्त तक इन्हीं तैयारियों के लिए आने वाला हूँ। हिज ऐक्स-लेन्सी गवर्नर महोदय स्वयं राज्यतिलक देने के लिए पधारने वाले हैं। उस मृदु संगीत को इस बेसुरे राग ने चौपट कर दिया। आपको अपने प्रजावाद का बीज किसी और खेत में बोना चाहिए था। आपने अपने शिक्षाधिकार का खेदजनक दुरूपयोग किया है। अब मुझ पर दया कर माया को मेरे पास भेज दीजिये। मैं नहीं चाहता कि अब वह एक क्षण भी वहाँ और रहे। अभिषेक तक मैं उसे अपने साथ रखूँगा। मुझे भय है कि वहाँ रह कर वह कोई और उपद्रव न कर बैठे...अस्तु।

सन्ध्या की गाड़ी से मायाशंकर ने लखनऊ को प्रस्थान किया।

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