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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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इस तरह दो साल गुजर गये। ज्ञानशंकर का सौभाग्य-सूर्य अब मध्याह्न पर था। राय साहब के ऋण से वह बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे। हाकिमों में मान था, रईसों में प्रतिष्ठा थी, विद्वज्जनों में आदर था, मर्मज्ञ लेखक थे, कुशल वक्ता थे। सुख-भोग की सब सामग्रियाँ प्राप्त थीं। जीवन की महत्त्वकांक्षाएँ पूरी हो गयी थी। वह जब कभी अवकाश के समय अपनी गत अवस्था पर विचार करते तब अपनी सफलता पर आश्चर्य होता था। मैं क्या से क्या हो गया? अभी तीन ही साल पहले मैं एक हजार सालाना नफे के लिए सारे गाँव को फाँसी पर चढ़वा देना चाहता था। तब मेरी दृष्टि कितनी संकीर्ण थी। एक तुच्छ बात के लिए चचा से अलग हो गया, यहाँ तक कि अपने सगे भाई का भी अहित सोचता था। उन्हें फँसाने में कोई बात उठा नहीं रखी। पर अब ऐसी कितनी रकमें दान कर देता हूँ। कहाँ एक ताँगा रखने की सामर्थ्य न थीं, कहाँ अब मोटरें मँगनी दिया करता हूँ। निस्सन्देह इस सफलता के लिए मुझे स्वाँग भरने पड़े, हाथ रँगने पड़े, पाप, छल, कपट सब कुछ करने पड़े, किन्तु अँधेरे में खोह में उतरे बिना अनमोल रत्न कहाँ मिलते हैं? लेकिन इसे अपना ही कृत्यों का फल समझना मेरी नितान्त भूल है। ईश्वरीय व्यवस्था न होती तो मेरी चाल कभी सीधी न पड़ती! उस समय तो ऐसा जान पड़ता था, कि पाँसा पलट पड़ा। वार खाली गया, लेकिन सौभाग्य से उन्हीं खाली वारों ने, उल्टी चालों ने बाजी जिता दी।

ज्ञानशंकर दूसरे-तीसरे महीने बनारस अवश्य जाते और प्रेमशंकर के पास रह कर सरल जीवन का आनन्द उठाते। उन्होंने प्रेमशंकर से कितनी ही बार साग्रह कहा कि अब आपको इस उजाड़ में झोंपड़ा बना कर रहने की क्या जरूरत है? चल कर घर पर रहिए और ईश्वर की दी हुई संपत्ति भोगिए। यह मंजूर न हो तो मेरे साथ चलिये। हजार-दो-हजार बीघे चक दे दूँ, वहाँ दिल खोल कर कृषक जीवन का आनन्द उठाइए, लेकिन प्रेमशंकर कहते, मेरे लिए इतना ही काफी है, ज्यादा की जरूरत नहीं। हाँ, इस अनुरोध का इतना फल अवश्य हुआ कि वह अपनी जोत को बढ़ाने पर राजी हो गये। उनके डाँड़ से मिली हुई पचास बीघे जमीन एक दूसरे ज़मींदार की थी। उन्होंने उसका पट्टा लिखा लिया और फूस के झोंपड़े की जगह खपरैल के मकान बनवा लिये। ज्ञानशंकर उनसे यह सब प्रस्ताव करते थे, पर उनके संतोषमय, सरल, निर्विरोध जीवन के महत्त्व से अनभिज्ञ थे। नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं में ग्रस्त रहने के बाद वहाँ के शान्तिमय, निर्विघ्न विश्राम में उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता था। यहाँ से जाने को जी न चाहता था। यह स्थान अब पहले की तरह न था, जहाँ केवल एक आदमी साधुओं की भाँति अपनी कुटी में पड़ा रहता हो। अब वह एक छोटी सी गुलजार बस्ती थी, जहाँ नित्य राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सम्वाद होते थे और जीवन-मरण के गूँढ़ जटिल प्रश्नों की मीमांसा की जाती थी! यह विद्वज्जनों की एक छोटी सी संगत थी, विद्वानों के पक्षपात और अहंकार से मुक्त। वास्तव में यह सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि थी। यहाँ न ईर्ष्या का सन्ताप था, न लोभ का उन्माद, न तृष्णा का प्रकोप। यहाँ धन की पूजा न होती थी और न दीनता पैरों तले कुचली जाती थी। यहाँ न एक गद्दी लगा कर बैठता था और न दूसरा अपराधियों की भाँति उनके सामने हाथ बाँध कर खड़ा होता था। यहाँ स्वामी की घुड़कियाँ न थीं न सेवक की दीन ठकुर-सोहातियाँ। यहाँ सब एक दूसरे के सेवक, एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। एक तरफ डॉक्टर इर्फान अली का सुन्दर बँगला था फूलों और लताओं से सजा हुआ। डॉक्टर साहब अब केवल वही मुकदमे लेते थे जिनके सच्चे होने का उन्हें विश्वास होता था और उतना ही पारिश्रमिक लेते थे जितना खर्च के लिए आवश्यक हो। संचय और संग्रह की चिंताओं से निवृत्त हो गये थे। शाम-सवेरे वह प्रेमशंकर के साथ बागवानी करते थे, जिसका उन्हें पहले से ही शौक था। पहले गमलों में लगे हुए पौधों को देखकर खुश होते थे, काम माली करता था। अब सारा काम अपने ही हाथों करते थे। उनके बँगले से मिला हुआ डॉक्टर प्रियनाथ का मकान था। मकान के सामने एक औषधालय था। अब वे प्रायः देहातों में घूम-घूम कर रोगियों का कष्ट निवारण करते थे नौकरी छोड़ दी थी। जीविका के लिए एक गौशाला खोल ली थी जिसमें कई पछाहीं गायें-भैंसे थी। दूध-मक्खन बिकने के लिए शहर चला आता था। रोगियों से कुछ फीस न लेते थे। बाबू ज्वालासिंह और प्रेमशंकर एक ही मकान में रहते थे। श्रद्धा और शीलमणि में खूब बनती थी। घर के कामों से फुरसत पाते ही दोनों चरखे पर बैठ जाती थीं। या मोजे बुनने लगती थीं। प्रेमशंकर नियमानुसार खेत में काम करते थे और ज्वालासिंह नये प्रकार के करघों पर आप कपड़े बुनते थे और हाजीपुर के कई युवकों को बुनना सिखाते थे। इस कला में वह बहुत निपुण हो गये थे। सैयद ईजाद हुसेन ने भी यहीं अड्डा जमाया। उनका परिवार अब भी शहर में ही रहता था, पर यह यतीमखाना यहीं उठ आया था। उसमें अब नकली नहीं, सच्चे यतीमों का पालन-पोषण होता था। सैयद साहब अपना ‘इत्तहाद’ अब भी निकालते थे और ‘इत्तहाद’ पर अपने व्याख्यान देते थे, लेकिन चन्दे न वसूल करते थे और न स्वाँग भरते थे। वह अब हिन्दू-मुसलिम एकता के सच्चे प्रचारक थे। यतीमखाने के समीप ही मायाशंकर का मित्र भवन था। यह एक छोटा सा छात्रालय था। इसमें इर्फान अली के दो लड़के, प्रियनाथ के तीनों लड़के, दुर्गा माली का एक लड़का और मस्ता का एक छोटा भाई साथ-साथ रहते थे। सब साथ-साथ पाठशाला को जाते और साथ-साथ भोजन करते। उनका सब खर्च मायाशंकर अपने वजीफे से देता था। भोजन श्रद्धा पकाती थी। ज्ञानशंकर ने कई बार चाहा कि माया को ले जाकर लखनऊ के ताल्लुकेदार स्कूल में दाखिल करा दें लेकिन वह राजी न होता था।

एक बार ज्ञानशंकर लखनऊ से आये तो माया के वास्ते एक बहुत सुन्दर रेशमी सूट सिला लाये, लेकिन माया ने उसको उस वक्त तक न पहना जब तक मित्र-भवन के और छात्रों के लिए वैसे ही सूट न तैयार हो गये। ज्ञानशंकर मन में बहुत लज्जित हुए और बहुत जब्त करने पर भी उनके मुँह से इतना निकल ही गया, भाई साहब, मैं इस साम्य-सिद्धान्त पर आपसे सहमत नहीं हूँ। यह एक अस्वाभाविक सिद्धान्त है। सिद्धान्त रूप से हम चाहे इसकी कितनी प्रशंसा करें पर इसका व्यवहार में लाना असंभव है। मैं यूरोप के कितने ही साम्यवादियों को जानता हूँ जो अमीरों की भाँति रहते हैं, मोटरों पर सैर करते हैं और साल में छह महीने इटली या फ्रांस में विहार किया करते हैं। जब वह अपने को साम्यवादी कह सकते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हम इस अस्वाभाविक नीति पर जान दें।

प्रेमशंकर ने विनीत भाव से कहा– यहाँ साम्यवाद की तो कभी चर्चा नहीं हुई है।

ज्ञान– तो फिर यहाँ के जलवायु में यह असर होगा। यद्यपि मुझे इस विषय में आपसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है पर पिता के नाते मैं। इतना कहने की क्षमा चाहता हूँ कि ऐसी शिक्षा का फल माया के लिए हितकर न होगा।

प्रेम– अगर तुम चाहो और माया की इच्छा हो तो उसे लखनऊ ले जाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ के जलवायु को बदलना मेरे वश की बात नहीं।

ज्ञान– यह तो आप जानते हैं कि माया और उसके साथियों की स्थिति में कितना अन्तर है।

प्रेमशंकर ने गम्भीरता से कहा– हाँ, खूब जानता हूँ, पर यह नहीं जानता कि इस अन्तर को प्रदर्शित क्यों किया जाये। मायाशंकर थोड़े दिनों में एक बड़ा इलाकेदार होगा, यह सब लड़कों को मालूम है। क्या यह बात उन्हें अपने दुर्भाग्य पर रुलाने के लिए काफी नहीं है कि इस विभिन्नता का स्वाँग दिखा कर उन्हें और भी चोट पहुँचायी जाय? तुम्हें मालूम न होगा, पर मैं यह विश्वस्त रूप से कहता हूँ कि तेजू और पद्यू का बलिदान माया के गोद लिए जाने के ही कारण हुआ। माया को अचानक इस रूप में देखकर सिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा हुई। माया डींगे मार-मार कर उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहा और उसका यह भयंकर परिणाम हुआ...

इतने में माया आ गया और प्रेमशंकर को अपनी बात अधूरी छोड़नी पड़ी। ज्ञानशंकर भी अन्यमनस्क हो कर वहाँ से उठ गये।

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