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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


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प्रेम– प्रतिष्ठा का ध्यान रखना आवश्यक है।

माया– मैं तो देखता हूँ आप इन चीजों के बिना ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, सभी आपकी इज्जत करते हैं। मेरे स्कूल के लड़के भी आपका नाम आदर से लेते हैं, हालाँकि शहर के और बड़े रईसों की हँसी उड़ाते हैं। मेरे लिए किसी विशेष चीज की जरूरत क्यों हो?

माया के प्रत्येक उत्तर पर प्रेमशंकर का हृदय अभिमान से फूला पड़ता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि इस लड़के में संतोष और त्याग का भाव क्योंकर उदित हुआ? इस उम्र में तो प्रायः लड़के टीमटाम पर जान देते हैं, सुन्दर वस्त्रों से उनका जी नहीं भरता, चमक-दमक की वस्तुओं पर लट्टू हो जाते है। यह पूर्व संस्कार हैं और कुछ नहीं। निरुत्तर होकर बोले– रानी गायत्री की यही इच्छा थी, नहीं तो इतने रुपये क्यों खर्च करतीं?

माया– यदि उनकी यह इच्छा होती तो यह वह मुझे ताल्लुकेदारों के स्कूलों में नहीं भेज देतीं? मुझे आपकी सेवा में रखने से उनका उद्देश्य यही होगा कि मैं आपके ही पदचिह्न पर चलूँ।

प्रेम– तो यह रुपये खर्च क्योंकर होंगे?

माया– इसका फैसला रानी अम्माँ ने आप पर ही छोड़ दिया है। मुझे आप उसी तरह रखिए जैसे आप अपने लड़के को रखते हैं। मुझे ऐसी शिक्षा न दीजिये और ऐसे व्यसनों में न डालिये कि मैं अपनी दीन प्रजा के दुःख-दर्द में शरीक न हो सकूँ। आपके विचार में मेरी शिक्षा की यही सबसे उत्तम विधि है?

प्रेम– नहीं, मेरा विचार तो ऐसा नहीं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए ऐसा ही करना पड़ेगा। नहीं तो लोग यहीं कहेंगे कि मैं तुम्हारी वृत्ति का दुरुपयोग कर रहा हूँ।

माया– तो आप मुझे इस ढंग पर शिक्षा देना चाहते हैं जिसे आप स्वयं उपयोगी नहीं समझते। लोगों के दुराक्षेपों से बचने के ही लिए आप ने यह व्यवस्थाएँ की हैं।

प्रेमशंकर शरमाते हुए बोले– हाँ बात तो कुछ ऐसी ही है।

माया– मैंने अपने वजीफे के खर्च करने की और भी विधि सोची है। आप बुरा न मानें तो कहूँ।

प्रेम– हाँ-हाँ, शौक से कहो। तुम्हारी बातों से मेरी आत्मा प्रसन्न होती है। मैं तुम्हें इतना विचारशील न समझता था।

ज्वालासिंह– इस उम्र में मैंने किसी को इतना चैतन्य नहीं देखा।

शीलमणि प्रेमशंकर की ओर मुँह करके मुस्कुरायी और बोली– इस पर आपकी ही परछायीं पड़ी है।

माया– मैं चाहता हूँ कि मेरा वजीफा गरीब लड़कों की सहायता में खर्च किया जाय। दस-दस रुपये की १९९ वृत्तियाँ दी जायें तो मेरे लिए दस रुपये बच रहेंगे। इतने में मेरा काम अच्छी तरह चल सकता है।

प्रेमशंकर पुलकित होकर बोले– बेटा, तुम्हारी उदारता धन्य है, तुम देवात्मा हो। कितना देवदुर्लभ त्याग है! कितना संतोष! ईश्वर तुम्हारे इन पवित्र भावों को सुदृढ़ करें, पर मैं तुम्हारे साथ इतना अन्याय नहीं कर सकता।

माया– तो दो-चार वृत्तियाँ कम कर दीजिये, लेकिन यह सहायता उन्हीं लड़कों को दी जाय जो यहाँ आकर खेती और बुनाई का काम सीखें।

ज्वाला– मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। मेरी राय में तुम्हें अपने लिए कम से कम ५०० रुपये रखने चाहिए बाकी रुपये तुम्हारी इच्छा के अनुसार खर्च किये जायँ। ७५ वृत्तियाँ बुनाई और ७५ खेती के काम सिखाने के लिए दी जाये। भाई साहब कृषिशास्त्र और विज्ञान में निपुण हैं। बुनाई का काम मैं सिखाया करूँगा। मैंने इसका अच्छी तरह अभ्यास कर लिया है।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह का खंडन करते हुए कहा– मैं इस विषय में रानी गायत्री की आज्ञा और इच्छा के बिना कुछ नहीं करना चाहता।

मायाशंकर ने निराश भाव से ज्वालासिहं को देखा और फिर अपनी किताब देखने लगा।

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