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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


52.

बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पाकर मुझे पग-पग पर आपसे सहारे की इच्छा होती है। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए?

ज्वालासिंह– ज्यादा नहीं तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेंगे।

प्रेम– और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नहीं है।

ज्वाला– इसकी चिन्ता नहीं। आपके नाम पर दस-बीस हजार मिल सकते हैं।

प्रेम– मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?

ज्वाला– जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूँगा।

प्रेम– मुझे आशा नहीं कि आपको इसमें सफलता होगी। सम्भव है दो-चार सौ रुपये मिल जायँ, लेकिन लोग यहीं समझेंगे कि उन्होंने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगों को सन्देह होने लगता है। आप तो देखते ही हैं, चन्दों ने हमारे कितने ही श्रेद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दों के भँवर में पड़कर बेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायँ।

इतने में शीलमणि इन लोगों के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ीं बोली-कभी उनके सुधि भी लेते हैं या गहनों पर हाथ साफ करना ही जानते हैं? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइये।

ज्वाला– क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो हैं। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनों रूठती हैं, उन्हें लेकर कौन अपनी जान गाढ़े से डाले!

शील– जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेंकती हैं।

मायाशंकर एक तरफ अपनी किताब खोले बैठा हुआ था, पर उसका ध्यान इन्हीं बातों की ओर था। एक कल्पना बार-बार उसके मन में उठ रही थी, पर संकोचवश उसे प्रकट न कर सकता था। कई बार इरादा किया कि कहूँ, पर प्रेमशंकर की ओर देखते ही जैसे कोई मुँह बन्द कर देता था। आँखें नीची हो जाती थीं! शीलमणि की बात सुनकर वह अधीन हो गया। ज्वालासिंह की तरफ कातर नेत्रों से देखता हुआ बोला–  आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूँ।

जवाला– हाँ-हाँ, शौक से कहो।

माया– इस महीने की मेरी पूरी वृत्ति अपील में खर्च कर दीजिये। मुझे रुपयों की कोई विशेष जरूरत नहीं है।

शीलमणि और ज्वालासिंह दोनों ने इस प्रस्ताव को बालोचित आवेश समझ कर प्रेमशंकर की तरफ मुस्कुराते हुए देखा। माया ने उनका यह भाव देखकर समझा, मुझसे धृष्टता हो गयी। ऐसे महत्त्व के विषय में मुझे बोलने का कोई अधिकार न था। चाचाजी दुस्साहस पर अवश्य नाराज होंगे। लज्जा से आँखें भर आयीं और मुँह से एक सिसकी निकल गयी। प्रेमशंकर ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, हृदयत भावों को समझ गये। उसे प्रेमपूर्वक छाती से लगा कर आवश्वासन देते हुए बोले– तुम रोते क्यों हो बेटा? तुम्हारी यह उदारता देखकर मेरा चित्त जितना प्रसन्न हुआ है वह प्रकट नहीं कर सकता। तुम मेरे पुत्रतुल्य हो, और मुझे विश्वास है कि तुम्हारा जीवन परोपकारी होगा, लेकिन मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिए जो व्यवस्थाएँ की हैं उनका व्यय तुम्हारी वृत्ति से कुछ अधिक ही है।

माया को अब कुछ साहस हुआ। बोला, मेरी शिक्षा पर इतने रुपये खर्च करने की क्या जरूरत है?

प्रेम– क्यों, आखिर तुम्हें घर पर पढ़ाने के लिए अध्यापक रहेंगे या नहीं? एक अँग्रेजी और हिसाब पढ़ायेगा, एक हिन्दी और संस्कृत, उर्दू और फारसी, एक फ्रेंच और जर्मन, पाँचवाँ तुम्हें व्यायाम, घोड़े की सवारी, नाव चलाना शिकार खेलना सिखायेगा। इतिहास और भूगोल मैं पढ़ाया करूँगा।

माया– मेरी कक्षा में जो लड़के सबसे अच्छे हैं वे घर पर किसी मास्टर से नहीं पढ़ते। मैं उनको अपने से कम नहीं समझता।

प्रेम– तुम्हें हवा के लिए एक फिटन की जरूरत है। सवारी के अभ्यास के लिए दो घोड़े चाहिए।

माया– अपराध क्षमा कीजिएगा, मेरे लिए इतने मास्टरों की जरूरत नहीं है। फिटन, मोटर, शिकार, पोलो को भी मैं व्यर्थ समझता हूँ। हाँ, एक घोड़ा गोरखपुर से मँगवा दीजिए तो सवारी किया करूँ। नाव चलाने के लिए मैं मल्लाहों की नाव पर जा बैठूँगा। उनके साथ पतवार घुमाने और डांड चलाने में जो आनंद मिलेगा वह अकेले अध्यापक के साथ बैठने में नहीं आ सकता। अभी से लोग कहने लगे हैं कि इसका मिजाज नहीं मिलता। पदमू कई बार ताने दे चुके हैं! मुझे नक्कू रईसों की भाँति अपनी हँसी कराने की इच्छा नहीं है। लोग यही कहेंगे कि अभी कल तक तो एक मास्टर भी न था, आज दूसरों की सम्पति पा कर इतना घमंड हो गया है।

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