Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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यह कह कर राय साहब धीरे से उठे और चले गये। तब विद्या ग्लानि, लज्जा और नैराश्य से मर्माहत होकर पलंग पर लेट गई और बिलख-बिलख कर रोने लगी। राय साहब के पहले आक्षेप का उसने प्रतिवाद किया था, पर इस दूसरे अपराध के विषय में वह अविश्वास का सहारा न ले सकी। अपने पति की स्वार्थ-नीति से खूब परिचित थी, पर उनकी वक्रता इतनी घोर और घातक हो सकती है, इसका उसे अनुमान भी न था। अब तक उनकी कुवृत्तियों का पर्दा ढँका हुआ था। जो कुछ दुःख और सन्ताप होता था वह उसी तक रहता था, पर यहाँ आकर पर्दा खुल गया। वह अपने पति की निगाह में गिर गयी, उसके मुँह में कालिख लग गई। राय साहब का यह समझना स्वाभाविक था कि इस दुष्कर्म में विद्या का भी कुछ भाग अवश्य होगा। कदाचित् यही समझ कर वह उसे यह वृत्तांत कहने आये थे। वह सारा दोष पति के सिर मढ़ कर अपने को क्योंकर मुक्त कर सकती? इस उधेड़-बुन में विद्या का ध्यान जब पाप-परिणाम की ओर गया तो वह काँप उठी। भगवान्! मैं दुखिया हूँ, अभागिनी हूँ, मुझ पर दया करो, तुम्हारी शरण हूँ। भाँति-भाँति की शंकाएँ उसके चित्त को विचलित करने लगीं। मायाशंकर की सूरत आँखों में फिरने लगी। ऐसा जी चाहता था कि पैरों में पर लग जायँ और उड़ कर उसके पास जा पहुँचूँ। रह-रह कर हृदय में एक हूक सी उठती थी और अनिष्ट कल्पना से चित्त विकल हो जाता था।

एक क्षण में इन ग्लानि और शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया। आग की बिखरी हुई चिनगारियाँ एक प्रचंड ज्वाला के रूप में ज्ञानशंकर की ओर लपकीं। तुम इतने नीच, इतने क्रूर, इतने दुर्बल हो! तुमने कहीं का न रखा। तुम्हारे ही कारण मेरी यह दुर्दशा हो रही है और अभी न जाने क्या-क्या होगी! तुम धूर्त हो। न जाने पूर्व जन्म में ऐसा क्या पाप किया था। तुम्हारे पल्ले पड़ी। उसने ज्ञानशंकर को उसी दम एक पत्र लिखने का निश्चय किया और सोचने लगी, उसकी शैली क्या हो? इसी सोच में पड़े-पड़े उसे नींद आ गई। वह बहुत देर तक पड़ी रही। जब सर्दी लगी तो चौंकी, कमरे में सन्नाटा था, सारे घर में निस्तब्धता छायी थी। महरियाँ भी सो गयीं थी। उसके व्यालू का थाल सामने मेज पर रखा हुआ था और एक पालतू बिल्ली उसके निकट उन चूहों की ताक में बैठी हुई थी जो भोज्य पदार्थों का रसास्वादन करने के लिए आलमारी के कोने से निकल कर आते थे और अज्ञात भय के कारण आधे रास्ते लौट जाते थे। विद्या कई मिनट तक इस दृश्य में मग्न रही। निद्रा ने उसके चित्त को शांत कर दिया था। उसे चूहे पर दया आयी जो एक क्षण में बिल्ली के मुँह का ग्रास बन जायेगा। इसके साथ ही उसकी कल्पना चूहे से ज्ञानशंकर की अवस्था की तुलना करने लगी। क्या उसकी दशा भी इसी चूहे की सी नहीं है? उन पर क्रोध क्यों करूँ? वह दया के योग्य हैं। वह इसी चूहे की भाँति स्वाद के वश हो कर काल के मुँह में दौड़े जा रहे हैं और माया-लोभ के हाथों में काठ की पुतली बने हुए नाच रहे हैं। मैं जा कर उन्हें समझाऊँगी, उनसे विनय करूँगी कि मुझे ऐसी सम्पत्ति की लालसा नहीं है जिस पर आत्मा और विवेक का बलिदान किया गया हो। ऐसी जायदाद को मेरी तिलांजलि है। मेरा लड़का गरीब रहेगा, अपने पसीने की कमाई खायेगा, लेकिन जब तक मेरा वश चलेगा मैं उसे इस जायदाद की हवा भी न लगने दूँगी।

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