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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


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एक दिन डॉक्टर साहब किसी मरीज को देखकर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषिशाला के सामने से निकले। दस बजे गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मंडल को वाणों से छेदती हुई जान पड़ती थीं। डॉक्टर साहब के जी में आया, देखता चलूँ क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोंपड़े के सामने वृक्ष के नीचे खड़े गेहूँ के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोंपड़े में आ गये और बोले धूप तेज है।

प्रियनाथ– लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए हैं मानों धूप है ही नहीं।

प्रेम– उन मजूरों को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।

प्रिय– वे मजूर हैं, इसके आदी हैं।

प्रियनाथ– हमें इस कृत्रिम जीवन ने चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे ही आदमी होते और श्रम को बुरा न समझते।

प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गट्ठे, रखे आयीं और पूछने लगीं– सरकार, लकड़ी ले लो। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबों के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती पर पसली की हड्डियाँ निकली हुई थीं। ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई उस पर सूखे हुए पसीने की धारियाँ सी बन गयी थीं। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गट्ठे उतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमाश्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह में बैठ गईं और लड़के बिखरे हुए दाने चुन-चुन कर खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लड़कों को दे दिये। दोनों स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं– बाबू जी, नारायण तुम्हें सदा सुखी रखें। इन बेचारों ने अभी कलेवा नहीं किया है।

प्रेम– तुम्हारा घर कहाँ है?

एक बुढ़िया– सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।

प्रियनाथ– आपने गट्ठे देखे नहीं, सबों ने खूब कैची लगायी है।

प्रेमशंकर– दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?

वृद्धा– क्या करें मालिक, बीच कोई बस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले हैं, दुपहरी हो गयी, किसी पेड़ के नीचे पड़े रहेंगे, दिन ढलेगा तो साँझ तक घर पहुँचेंगे। करम का लिखा भोग है! जो कभी न करना था, वह मरते समय करना पड़ा!

प्रेम– आजकल गाँव का क्या हाल है?

वृद्ध– क्या हाल बतायें सरकार, ज़मींदार की निगाह टेढ़ी हो गयी, सारा गाँव बँध गया, कोई डामिल गया, कोई कैद हो गया। उनके बाल-बच्चे अब दाने-दाने को तरस रहे हैं। मेरे दो बेटे थे। दो हल की खेती होती थी। एक तो डामिल गया। दूसरे ही साल भर से कुछ टोह ही नहीं मिली। बैल थे, वे चारे बिना टूट गये। खेती-बाड़ी कौन करे? बहुएँ हैं, वे बाहर आ-जा नहीं सकतीं। मैं ही उपले बेंच कर ले जाती हूँ तो सबके मुँह में दाना पड़ता है। पोते थे, उन्हें भगवान् ने उन्हें पहले ही ले लिया। बुढ़ापे में यही भोगना लिखा था।

प्रेम– तुम डपटसिंह की माँ तो नहीं हो?

वृद्धा– हाँ सरकार, आप कैसे जानते हो?

प्रेम– ताऊन के दिनों में जब तुम्हारे पोते बीमार थे तब मैं वहीं था। कई बेर और हो आया हूँ तुमने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम प्रेमशंकर है।

वृद्धा ने थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया। दीनता की जगह लज्जा का हल्का-सा रंग चेहरे पर आ गया बोली हाँ बेटा, अब मैंने पहचाना। आँखों से अच्छी तरह सूझता नहीं। भैया, तुम जुग-जुग जियो। आज सारा गाँव तुम्हारा यश गा रहा है। तुमने अपनी वाली कर दी, पर भाग में जो कुछ लिखा था वह कैसे टलता? बेटा! सारे गाँव में हाहाकार मचा हुआ है। दुखरन भगत को तो जानते ही होगे? यह बुढ़िया उन्हीं की घरवाली है। पुराना खाती थी, नया रखती थी। अब घर में कुछ नहीं रहा। यह दोनों लड़के बंधू के हैं, एक रंगी का लड़का है और ये दोनों कादिर मिया के पोते हैं। न जाने क्या हो गया कि घर से मरदों के जाते ही जैसे बरक्कत ही उठ गयी। सुनती थी कि कादिर मियाँ के पास बड़ा धन है; पर इतने ही दिनों में यह हाल हो गया कि लड़के मजदूरी न करें तो मुँह में मक्खी आये-जाये। भगवान् इस कलमुँह फैजू का सत्यानाश करे, इसने और भी अन्धेर मचा रखा है! अब तक तो उसने गाँव-भर को बेदखल कर दिया होता, पर नारायण सुक्खू चौधरी का भला करे जिन्होंने सारी बाकी कौड़ी पाई-पाई चुका दी। पर अबकी उन्होंने ने भी खबर न ली और फिर अकेला आदमी सारे गाँव को कहाँ तक सँभाले? साल-दो साल की बात हो तो निबाह दे, यहाँ तो उम्र भर का रोना है। कारिन्दा अभी से धमका रहे हैं कि अबकि बेदखल करके दम लेंगे। अबकी साल तो कुछ आधे-साझे में खेती हो गयी थी। खेत निकल जायेंगे तो न जाने क्या गति होगी?

यह कहते-कहते बुढ़िया रोने लगी। प्रेमशंकर की आँखें भी भर गईं, पूछा-बिसेसर साह की क्या हाल है?

बुढ़िया– क्या जानूँ भैया, मैंने तो साल भर से उसके द्वार पर झाँका भी नहीं। अब कोई उधर नहीं जाता। ऐसे आदमी का मुँह देखना पाप है। लोग दूसरे गाँव से नोन-तेल लाते हैं। वह भी अब घर से बाहर नहीं निकलता। दूकान उठा दी है। घर में बैठा न जाने क्या-क्या करता है? जो दूसरे को गड्ढा खोदेगा, उसके लिए कुँआ तैयार है। देखा तो नहीं पर सुनती हूँ, जब से यह मामला उठा है उसके घर में किसी को चैन नहीं है। एक न एक परानी के सिर भूत आया ही रहता है। ओझे-सयाने रात-दिन जमा रहते हैं। पूजा-पाठ, जप-तप हुआ करता है। एक दिन बिलासी से रास्ते में मिल गया था। रोने लगा। बहुत पछताया था कि मैंने दूसरों की बातों में आकर यह कुकर्म किया। मनोहर उसके गले पड़ा हुआ है। मारे डर के साँझ से केवाड़ बन्द हो जाता है। रात को बाहर नहीं निकलता। मनोहर रात-दिन उसके द्वार पर खड़ा रहता है, जिसको पाता है उसी को चपेट लेता है। सुनती हूँ, अब गाँव छोड़ कर किसी दूसरे गाँव में बसनेवाला है।

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