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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी-सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जायें।

प्रेमशंकर– जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक विदा करेंगे?

प्रियनाथ– अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने के थोड़ी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है। यह भी तो आपका ही घर है।

प्रेमशंकर– आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा का कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कहीं और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया की संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत् पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।

प्रेमशंकर की नम्रता और सरलता डॉक्टर महोदय के हृदय को दिनोंदिन मोहित करती जाती थी। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निःस्पृह पुरुष का श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुद्रताएँ और मलितनाएँ आप ही आप मिटती जाती थीं। वह ज्योति दीप की भाँति उनके अन्तःकरण के अँधेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा रत्न को पा कर ऐसे मुग्ध थे, जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाये। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाये। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमे के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दें, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बातें सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा हैं। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सचरित्र समझ रहे हैं, जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भांति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन में घोर पाप किये हैं। यदि वह आपसे बयान करूँ तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वयं अपने कुकृत्यों का परदा बना हुआ हूँ, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढाँके हुए हूँ, लेकिन इस मुकदमें के संबंध में जनता ने मुझे कितना बदनाम कर रखा है, उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझ पर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्भव है हत्या निरूपण में मुझे भ्रम हुआ हो। और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हूँ कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है। जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।

प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा– भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराधी हूं। मैंने ही दूसरों के कहने में आकर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुःख और खेद है वह आप से कह नहीं सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दंड देंगे। पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पज्ञता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।

प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। प्रेमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डॉक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आया करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्त्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन में आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखने बिना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली या सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द ही महीनों में सारे नगर में उनका बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘गौरव’ उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटें किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने अपने एक लेख में यह आलोचना की, ‘काशी’ के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्त्तव्यपरायण डॉक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नहीं, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।’ डॉक्टर साहब को सुकीर्ति का स्वाद मिल गया। अब दीनों की सेवा से उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले संचित धन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि धन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नहीं हुए थे, पर कीर्ति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा को परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओं से धुले हुए फूलों के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामना-रहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा। तुच्छ मालूम होने लगती थी। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सन्तुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं, यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम औऱ श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं, तो फिर धन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यों इतनी बढ़ी हुई हैं, मैं डॉक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हूँ, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों मारता हूँ! इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था। लोभी, स्वार्थी निर्दय बना हुआ था और अब भी हूँ। लोगों को शंका होती थी कि कहीं यह रोग को बढ़ा न दें, इसलिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डॉक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगा।

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