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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


40.

जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विरोधी तथा सहायक शक्तियों की बड़ी योग्यता से निरूपण किया गया था। संस्था की वर्तमान दशा और भावी लक्ष्य की बड़ी मार्मिक आलोचना की गयी थी। पत्रों में उस वक्तृता को पढ़ कर लोग चकित रह जाते थे और जिन्होंने उसे अपने कानों से सुना वे उसका स्वर्गीय आनन्द कभी न भूलेंगे। क्या वाक्य-शैली थी, कितनी सरल, कितनी मधुर, कितनी प्रभावशाली, कितनी भावमयी! वक्तृता क्या थी– एक मनोहर गान था!

तीन दिन बीत चुके थे। ज्ञानशंकर अपने भव्य-भवन में समाचार-पत्रों का एक दफ्तर सामने रखे बैठे हुए थे। आजकल उनका यही काम था कि पत्रों में जहाँ कहीं इस जलसे की आलोचना हुई तुरन्त काट कर रख लेते। गायत्री अब ज्ञानशंकर को देवतुल्य समझती थी। उन्हीं की बदौलत आज समस्त देश में उसकी सुकीर्ति की धूम मची हुई थी। उसके इस अतुल उपकार का एक ही उपहार था और वह प्रेमपूर्ण श्रद्धा थी।

सन्ध्या हो गयी थी कि अकस्मात् ज्ञानशंकर पत्रों की एक पोटली लिये हुए अन्दर गये और गायत्री से बोले, देखिए, रायसाहब ने यह नया शिगूफा छोड़ा।

गायत्री ने भौंहें चढ़ाकर कहा, मेरे सामने उनका नाम न लीजिए। मैंने उनकी कितनी चिरौरी की थी एक दिन के लिए जलसे में अवश्य आइए, पर उन्होंने जरा भी परवाह न की। पत्र का उत्तर तक न दिया। बाप हैं तो क्या, मैं उनके हाथों भी अपना अपमान नहीं सह सकती।

ज्ञान– मैंने तो समझा था, यह उनकी लापरवाही है, लेकिन इस पत्र से विदित होता है कि आजकल वह एक दूसरी ही धुन में हैं। शायद इसी कारण अवकाश न मिला हो।

गायत्री– क्या बात है, किसी अँगरेज से लड़ तो नहीं बैठे।

ज्ञान– नहीं, आजकल एक संगीत-सभा की तैयारी कर हैं।

गायत्री– उनके यहाँ तो बारहों मास संगीत-सभा होती रहती है।

ज्ञान नहीं, यह उत्सव बड़ी धूम-धाम से होगा। देश के समस्त गवैयों के नाम निमंत्रण-पत्र भेजे गये हैं। यूरोप से भी कोई जगद्विख्यात गायनाचार्य बुलाये जा रहे हैं। रईसों और अधिकारियों को दावत दी गयी है। एक सप्ताह तक जलसा होगा। यहाँ के संगीत-शास्त्र और पद्धति में सुधार करना उनका उदेश्य है।

गायत्री– हमारा संगीत-शास्त्र ऋषियों का रचा हुआ है। उसमें क्या कोई सुधार करेगा? इस भैरव और ध्रुपद के शब्द यशोदानन्दन की वंशी से निकलते थे, पहले कोई गा तो ले, सुधारना तो छोटा मुँह बड़ी बात है।

ज्ञान– राय साहब को कोई और चिन्ता तो है नहीं, एक स्वाँग रचते रहते हैं। कर्ज बढ़ता जाता है, रियासत बोझ से दबी जाती है, पर वह अपनी धुन में किसी की कब सुनते हैं! मेरा अनुमान है कि इस समय उन पर ३।। लाख देना है।

गायत्री– इतना धन-कृष्ण भगवान् की सेवा में खर्च करते तो परलोक बन जाता! चिट्ठियाँ तो खोलिए, जरूर कोई पत्र होगा।

ज्ञान– हाँ देखिए, यह लिफाफा उन्हीं का मालूम होता है। हाँ, उन्हीं का है! मुझे बुला रहे हैं और आपको भी बुला रहे हैं।

गायत्री– मैं जा चुकी। जब वह यहाँ आने में अपनी हेटी समझते हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि उनके जलसों-तमाशों में जाऊँ? हाँ, विद्या को चाहे पहुँचा दीजिए; मगर शर्त यह है कि आप दो दिन से ज्यादा वहाँ न ठहरें।

ज्ञान– इसके विषय में सोच कर निश्चय करूँगा। यह दो पत्र बरहाल और आम-गाँव के कारिन्दों के हैं। दोनों लिखते हैं। कि असामी सभा का चन्दा देने से इन्कार करते हैं।

गायत्री की त्योरियाँ बदल गयीं। प्रेम की देवी क्रोध की मूर्ति बन गयी। बोली, क्या देहातों, में भी वह हवा फैलने लगी? कारिन्दों को लिख दीजिए कि इन पाजियों के घर में आग लगवा दें और उन्हें कोड़ों से पिटवायें। उनका यह दिल कि मेरी आज्ञा का निरादर करें! देवकीनन्दन, तुम इन नर-पिशाचों को क्षमा करो! आप आज ही वहाँ आदमी रवाना करें! मैं यह अवज्ञा नहीं सह सकती। यह सब-के-सब कृतघ्न हैं। किसी दूसरे राज में होते तो आटे-दाल का भाव खुलता। मैं उनके साथ उतनी रिआयत करती हूँ, उनकी मदद के लिए तैयार रहती हूँ, इनके लिए नुकसान उठाती हूँ और उसका यह फल!

ज्ञान– यह मुंशी रामसनेही का पत्र है। लिखते हैं, ठाकुरद्वारे का काम तीन दिन से बन्द है। बेगारों को कितनी ताकीद की जाती है, मगर काम पर नहीं आते।

गायत्री– उन्हें मजूरी दी जाती है न?

ज्ञान– जी हाँ, लेकिन जमींदारी की दर से दी जाती है। जमींदारी शरह दो आने है, आम शरह छह आने है।

गायत्री– आप उचित समझें तो रामसनेही को लिख दीजिए कि चार आने के हिसाब से मजूरी दी जाये।

ज्ञान– लिख तो दूँ, वास्तव में दो आने में एक पेट भी नहीं भरता, लेकिन इन मूर्ख, उजड्ड गँवारों पर दया भी की जाय तो वह समझते हैं कि दब गये। कल को छह आने माँगने लगेंगे और फिर बात भी न सुनेंगे।

गायत्री– फिर लिख दीजिए कि बेगारों को जबरदस्ती पकड़वा लें। अगर न आये तो उन्हें गाँव से निकाल दीजिए। हम स्वयं दया– भाव से चाहे उनके साथ जो सलूक करें मगर यह कदापि नहीं हो सकता कि कोई असामी मेरे सामने हेकड़ी जतावे अपना रोब और भय बनाये रखना चाहिए।

ज्ञान– यह पत्र अमेलिया के बाजार से आया है। ठेकेदार लिखता है कि लोग गोले के भीतर गाड़ियाँ नहीं लाते। बाहर ही पेड़ों के नीचे अपना सौदा बेचते हैं। कहते हैं, हमारा जहाँ जी चाहेगा बैठेंगे। ऐसी दशा में ठीका रद्द कर दिया जाये अन्यथा मुझे बड़ी हानि होगी।

गायत्री– बाजार के बाहर भी तो मेरी ही जमीन है, वहाँ किसी को दूकान रखने का क्या अधिकार?

ज्ञान– कुछ नहीं, बदमाशी है। बाजारों में रुपये पीछे, एक पैसा बयाई देनी पड़ती है, तौल ठीक-ठीक होती है, कुछ धर्मार्थ कटौती देनी पड़ती है, बाहर मनमाना राज है!

गायत्री– यह क्या बात है कि जो काम जनता के सुभीते और आराम के लिए किये जाते हैं, उनका भी लोग विरोध करते हैं।

ज्ञान– कुछ नहीं, यह मानव प्रकृति है। मनुष्य को स्वभावतः दबाव से, रोकथाम से, चाहे वह उसी के उपकार के लिए क्यों न हो, चिढ़ ही होती है। किसान अपने मूर्ख पुरोहित के पैर धो-धो पियेगा, लेकिन कारिन्दा को, चाहे वह विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो, सलाम करने में भी उसे संकोच होता है। यों चाहे वह दिन भर धूप में खड़ा रहे, लेकिन कारिन्दा या चपरासी को देख कर चारपाई से उठना उसे असह्य होता है। वह आठों पहर अपनी दीनता और विवशता के भार से दबा रहना नहीं चाहता। अपनी खुशी से नीम की पत्तियाँ चबायेगा, लेकिन जबरदस्ती दूध और शर्बत भी न पियेगा। यह जानते हुए भी हम उन पर सख्ती करने के लिए बाध्य हैं।

इतने में मायाशंकर एक पीताम्बर ओढ़े हुए ऊपर से उतरा। अभी उसकी उम्र चौदह वर्ष से अधिक न थी, किंतु मुख पर एक विलक्षण गम्भीरता और विचारशीलता झलक रही थी। जो इस अवस्था में बहुत कम देखने में आती है। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहाँ चले मुन्नू?

माया ने तीव्र नेत्रों से देखते हुए कहा, घाट की तरफ सन्ध्या करने जाता हूँ।

ज्ञान– आज सर्दी बहुत है। यहीं बाग में क्यों नहीं कर लेते?

माया– वहाँ एकान्त में चित्त खूब एकाग्र हो जाता है।

वह चल गया तो ज्ञानशंकर ने कहा, इस लड़के का स्वभाव विचित्र है। समझ में ही नहीं आता। सवारियाँ सब तैयार है; पर पैदल ही जायगा। किसी को साथ भी नहीं लेता।

गायत्री– महरियाँ कहती हैं, अपना बिछावन तक किसी को नहीं छूने देते। वह बेचारियाँ इनका मुँह जोहा करती हैं, कि कोई काम करने को कहें, पर किसी से कुछ मतलब ही नहीं।

ज्ञान– इस उम्र में कभी-कभी यह सनक सवार हो जाया करती है। संसार का कुछ ज्ञान तो होता नहीं। पुस्तकों में जिन नियमों की सराहना की गयी है, उनके पालन करने को प्रस्तुत हो जाता है। लेकिन मुझे तो यह कुछ मन्दबुद्धि सा जान पड़ता है। इतना पढ़ा हुआ,पैसे की कदर ही नहीं जानता। अभी १०० रुपये दे दीजिये। तो शाम तक पास कौड़ी न रहेगी। न जाने कहाँ उड़ा देता है; किन्तु इसके साथ ही माँगता कभी नहीं। जब तक खुद न दीजिए, अपनी जबान से कभी न कहेगा।

गायत्री– मेरी समझ में तो यह पूर्व जन्म में कोई संन्यासी रहे होंगे।

ज्ञानशंकर ने आज ही गाड़ी से बनारस जाकर विद्या को साथ लेते हुए लखनऊ जाने का निश्चय किया। गायत्री बहुत कहने-सुनने पर भी राजी न हुई।

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