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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


36.

प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिकारियों का दल आ पहुँचा। मौके की जाँच होने लगी, जेल कर्मचारियों के बयान लिखे जाने लगे। एक घंटे में सिविल सर्जन और डॉक्टर प्रियनाथ भी आ गये। मजिस्ट्रेट, कमिश्नर और सिटी मजिस्ट्रेट का आगमन हुआ। दिन-भर तहकीकात होती रही। दूसरे दिन भी यही जमघट रही और यही कार्यवाही होती रही, लेकिन साँप मर चुका था, उसकी बाँबी को लाठी से पीटना व्यर्थ था। हाँ, जेल-कर्मचारियों पर बन आयी, जेल दारोगा ६ महीने के लिए मुअत्तल कर दिये गये, रक्षकों पर कड़े जुर्माने हुए। जेल के नियमों में सुधार किया गया, खिड़कियों पर दोहरी छड़ें लगा दी गयीं। शेष अभियुक्तों के हाथों में हथकड़ियाँ न डाली गयी थीं, अब दोहरी हथकड़ियाँ डाल दी गयीं। प्रेमशंकर यह खबर पाते ही दौड़े हुए जेल आये, पर अधिकारियों ने उन्हें फाटक के सामने से ही भगा दिया। अब तक जेल कर्मचारियों ने उनके साथ सब प्रकार की रियायत की थी। अभियुक्तों से उनकी मुलाकात करा देते थे, उनके यहाँ से आया हुआ भोजन अभियुक्तों तक पहुँचा देते थे। पर आज उन सबका रुख बदला हुआ था। प्रेमशंकर जेल के सामने खड़े सोच रहे थे, अब क्या करूँ कि पुलिस का प्रधान अफसर जेल से निकला और उन्हें देख कर बोला, यह तुम्हारे ही उपदेशों का फल है, तुम्हीं ने शेष अपराधियों को बचाने के लिए यह आत्म-हत्या करायी है। जेल के दारोगा ने भी उनसे इसी तरह की बातें की। इन तिरस्कारों से प्रेमशंकर को बड़ा दुःख हुआ। जीवन उन्हें नये-नये अनुभवों की पाठशाला-सा जान पड़ता था। यह पहला ही अवसर था कि उनकी दयार्द्रता और सदिच्छा की अवहेलना की गयी। वह आध घंटे तक चिन्ता में डूबे वहीं खड़े रहे, तब अपने झोंपड़े की ओर चले, मानो अपने किसी प्रियबन्धु की दाह-क्रिया करके आ रहे हों।

घर पहुँच कर वह फिर उन्हीं विचारों में मग्न हुए। कुछ समझ में न आता था कि जीवन का क्या लक्ष्य बनाया जाय। क्षुद्र लौकिकता से चित्त को घृणा होती थी और उत्कृष्ट नियमों पर चलने के नतीजे उल्टे होते थे। उन्हें अपनी विवशता का ऐसा निराशाजनक अनुभव कभी न हुआ था। मानव-बुद्धि कितनी भ्रमयुक्त है, उसकी दृष्टि कितनी संकीर्ण! इसका ऐसा स्पष्ट प्रमाण कभी न मिला था। यद्यपि वह अहंकार को अपने पास न आने देते थे, पर वह किसी गुप्त मार्ग से उनके हृदयस्थल में पहुँच जाता था। अपने सदकार्यों तो सफल होते देख कर उनका चित्त उल्लसित हो जाता था और हृदय-कणों में किसी ओर से मन्द स्वरों में सुनायी देता था– मैंने कितना अच्छा काम किया! लेकिन ऐसे प्रत्येक अवसर पर ही क्षण के उपरान्त उन्हें कोई ऐसी चेतावनी मिल जाती थी, जो उनके अहंकार को चूर-चूर कर देती थी। मूर्ख! तुझे अपनी सिद्धान्त-प्रियता का अभिमान है! देख, वह कितने कच्चे हैं। तुझे अपनी बुद्धि और विद्या का घमंड है? देख, वह कितनी भ्रान्तिपूर्ण है। तुझे अपने ज्ञान और सदाचार का गरूर है! देख, वह कितना अपूर्ण और भ्रष्ट है। क्या तुम्हें निश्चय है कि तुम्हारी ही उत्तेजनाएँ गौस खाँ की हत्या का कारण नहीं हुई? तुम्हारे ही कटु उपदेशों ने मनोहर की जान नहीं ली? तुम्हारे ही वक्र नीति-पालन ने ज्ञानशंकर की श्रद्धा को तुमसे विमुख नहीं किया?

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