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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


31.

डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रवेश किया और ज्वालासिंह को देखते ही सलाम करके उनके सामने खड़े हो गये। उनके साथ एक हिन्दू युवक और भी था जो चाल-ढाल से धनाढ्य जान पड़ता था।

ज्वालासिंह– बोले, आइए-आइए! मिजाज तो अच्छा है? आजकल किसकी पेशी में हैं?

ईजाद– जब से हुजूर तशरीफ ले गये, मैंने भी नौकरी को सलाम किया। जिन्दगी शिकमपर्वरी में गुजर जाती थी। इरादा हुआ कुछ दिन कौम की खिदमत करूँ। इसी गरज से ‘अंजुमन इत्तहाद’ खोल रखी है। उसका मकसद हिन्दू-मुसलमानों में मेल-जोल पैदा करना है। मैं इसे कौम का सबसे अहम (महत्त्वपूर्ण) मसला समझता हूँ। दोनों साहब अगर अंजुमन को अपने कदमों से मुमताज फरमायें तो मेरी खुशनसीबी ही है।

ज्वाला– आप वाकई कौम की सच्ची खिदमत कर रहे हैं।

ईजाद– शुक्र है, जनाब की जबान से यह कलाम निकला। यहाँ मुझे मियाँ ‘इत्तहाद’ कह कर मेरा मजाक उड़ाया जाता है। अंजुमन पर आवाजें कसी जाती हैं। मुझे खुदमतलब और खुदगरज कहा जाता है। यह सब जिल्लत उठाता हूँ। दोनों कौमों के बाहमी निफाक को देखता हूँ तो जिगर के टुकड़े हो जाते हैं। वह मुहब्बत और एखलास जिस पर कौम ही हस्ती कायम है, रोज-ब-रोज गायब होता जाता है। अगर एक हिन्दू इसलाम पर यकीन लाता है तो शोर मच जाता है कि हिन्दू कौम तबाह हुई जाती है। अगर एक हिन्दू कोई ऊँचा ओहदा पा जाता है तो मुसलमानों में हाय! हाय!’ की सदा उठने लगती है। कोई कहता है इसलाम गारत हुआ, कोई कहता है इसलाम की किश्ती भँवर में पड़ी। लाहौल बिला कूअत! मजहब रूहाना तसकीन और नजात का जरिया है, न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला। इस बहामी कुदूरत को हमारे मुल्ला और पण्डित और भी भड़काते हैं। मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की सदा है, पर कौमी दर्द, कौमी गैरत चुप नहीं बैठने देती। गला फाड़-फाड़ चिल्लाता हूँ, कोई सुने या न सुने। अंजुमन में इस वक्त सौ मेम्बर हैं कोई सत्तर हिन्दू साहबान हैं और तीस मुलसमान। उनके इन्तजाम से एक कुतुबखाना और मदरसा चलता है। अंजुमन का इरादा है कि एक इत्तहादी इबादतगाह बनाया जाय, जिसके एक जानिब शिवाला हो और दूसरे जानिब मस्जिद। एक यतीमखाने की बुनियाद डाल दी गयी है। दोनों कौमों के यतीमों को दाखिल किया जाता है। मगर अभी तक इमारतें नहीं बन सकीं। यह सब इरादे रुपये के मुहताज हैं। फकीर ने तो अपना सब कुछ निसार कर दिया। अब कौम को अख्तियार है, उसे चलाये या बन्द कर दे। क्यों डॉक्टर साहब, मेरा हिब्बानामा आपने तैयार फरमाया?

इर्फान अली– कोई तातील आये तो इतमीनान से आपका काम करूँ।

प्रेमशंकर ने श्रद्धाभाव से कहा, सैयद साहब की जात कौम के लिए बर्कत है। अंजुमन के लिए १००) की हकीर रकम नजर करता हूँ और यतीमखाने के लिए ५० मन गेहूँ, ५ मन शक्कर और २०) रुपये माहवार।

ईजाद हुसेन– खुदा आपको सबाब अता करे। अगर इजाजत हो तो जनाब का नाम भी ट्रस्टियों में दाखिल कर लिया जाय।

प्रेमशंकर– मैं इस इज्जत के लायक नहीं हूँ।

ईजाद– नहीं जनाब, मेरी यह इल्तजा आपको कबूल करनी होगी। खुदा ने आपकी एक दर्दमन्द दिल अता किया है। क्यों नहीं, आप लाला जटाशंकर मरहूम के खलक हैं जिनकी गरीबपरवरी से सारा शहर मालामाल होता था। यतीम आपको दुआएँ देंगे और अंजुमन हमेशा आपकी ममनून रहेगी?

इर्फान अली ने ज्वालासिंह से पूछा, आपका कमाय यहाँ कब तक रहेगा।

ज्वाला– कुछ अर्ज नहीं कर सकता। आया तो इस इरादे से हूँ कि बाबू प्रेमशंकर की गुलामी में जिन्दगी गुजार दूँ। मुलाजमत से इस्तीफा देना तय कर चुका हूँ।

इर्फान अली– वल्लाह! आप दोनों साहब बड़े जिन्दादिल हैं। दुआ कीजिए कि खुदा मुझे भी कनाअत (सन्तोष) की दौलत अता करे और मैं भी आप लोगों की सोहबत में फैज उठाऊँ।

ज्वालासिंह ने मुस्करा कर कहा, हमारे मुलाजिमों को बरी करा दीजिए, तब हम शबोरोज आपके लिए दुआएँ करेंगे।

इर्फान अली हँस कर बोले, शर्त तो टेढ़ी है, मगर मंजूर है। डॉक्टर चोपड़ा का बयान अपने मुआफिक हो जाय तो बाजी अपनी है।

ईजाद– अब जरा इस गरीब की भी खबर लीजिए। मेरे मुहल्ले में रहते हैं। कपड़े की बड़ी दुकान है। इनके बड़े भाई इनसे बेरुखी से पेश आते हैं। इन्हें जेब खर्च के लिए कुछ नहीं देते। हिसाब भी नहीं दिखाते, सारा नफा खुद हजम कर जाते हैं। कल इन्हें बहुत सख्त सुस्त कहा। जब इनका आधा हिस्सा है, तो क्यों न अपने हिस्से का दावा करें। यह बालिग हैं, अपना फायदा नुकसान समझते हैं, भाई की रोटियों पर नहीं रहना चाहते। बोली, भाई मथुरादास, बारिस्टर साहब से कहो क्या कहते हो?

मथुरादास ने जमीन की तरफ देखा और ईजाद हुसेन की ओर कनखियों से ताकते हुए बोले– मैं यही चाहता हूँ कि भैया से आप मेरी राजी-खुशी करा दें। कल मैंने उन्हें गाली दे दी थी। अब वह कहते हैं, तू ही घर सँभाल, मुझसे कोई वास्ता नहीं। कुंजियाँ सब फेंक दी हैं और दुकान पर नहीं जाते।

ईजाद हुसेन ने मथुरादास की ओर वक्रदृष्टि से देखकर कहा, साफ-साफ अपना मतलब क्यों नहीं कहते? आप इनकी मन्शा समझ गये होंगे। अभी ना-तजुर्बेंकार आदमी, बातचीत करने की तमीज नहीं है, जभी तो रोज धक्के खाते हैं। इनकी मन्शा है कि आप दावा दायर करें, लेकिन यह मामले को तूल नहीं देना चाहते, सिर्फ अलदहा होना चाहते हैं क्यों ठीक है न?

मथुरादास– (सरल भाव से) जी हाँ, बस यही चाहता हूँ कि उनसे मेरी राजी-खुशी हो जाय।

मुंशी रमजानअली मुहर्रिर थे। ईजाद हुसेन मथुरादास को उनके कमरे में ले गये। वहाँ खासा दफ्तर था। कई आदमी बैठे लिख रहे थे। रमजान अली ने पूछा, कितने का दावा होगा?

ईजाद– यही कोई एक लाख का।

रमजान अली ने वकालातनामा लिखा। कोर्ट फीस, तलबाना, मेहनताना, नजराना आदि वसूल किये, जो मथुरादास ने ईजाद हुसेन की ओर अविश्वास की दृष्टि से देखते हुए दिये, जैसे कोई किसान पछता-पछता कर दक्षिणा के पैसे निकालता है। और तब दोनों सज्जनों ने घर की राह ली।

रास्ते में मथुरादास ने कहा, आपने जबरदस्ती मुझे भैया से लड़ा दिया। सैकड़ों रुपये की चपत पड़ गयी और अभी कोर्ट फीस बाकी ही है।

ईजाद हुसेन बोले, एहसान तो न मानोगे कि भाई की गुलामी से आजाद होने का इन्तजाम कर दिया। आधी दूकान के मालिक बनकर बैठोगे, उल्टे और शिकायत करते हो।

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