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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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मित्रगण कुछ देर तक और बैठे रहे, लेकिन प्रेमशंकर कुछ ऐसे दब गये कि फिर जबान ही न खुली। अन्त में सब एक-एक करके चले गये।

सूर्यास्त हो रहा था। प्रेमशंकर घोर चिन्ता की दशा में अपने झोंपड़े के सामने टहल रहे थे। उनके सामने अब यह समस्या थी कि ज्ञानशंकर से कैसे मेल हो। वह जितना ही विचार करते थे उतना ही अपने को दोषी पाते थे। यह सब मेरी ही करनी है। जब असामियों से उनकी लड़ाई ठनी हुई थी तो मुझे उचित नहीं था कि असामियों का पक्ष ग्रहण करता। माना कि ज्ञानशंकर का अत्याचार था! ऐसी दशा में मुझे अलग रहना चाहिए था या उन्हें भ्रातृवत् समझाना चाहिए था। यह तो मुझसे न हुआ। उल्टे उन्हीं से लड़ बैठा। माना कि उनके और मेरे सिद्धान्तों में घोर अन्तर है, लेकिन सिद्धान्त-विरोध परस्पर भ्रातृ-प्रेम को क्यों दूषित करे? यह भी माना कि जब से मैं आया हूँ उन्होंने मेरी अवहेलना ही की है, यहाँ तक कि मुझे पत्नी-प्रेम से वंचित कर दिया, पर मैंने भी तो कभी उनसे मिले रहने की, उनसे कटु व्यवहार को भूल जाने की, उसकी अप्रिय बातों को सह लेने की चेष्टा नहीं की। वह मुझसे एक अंगुल खसके तो मैं उनसे हाथ भर हट गया। सिद्धान्त-प्रियता का यह आशय नहीं है कि आत्मीय जनों से विरोध कर लिया जाय। सिद्धान्तों को मनुष्यों से अधिक मान्य समझना अक्षम्य है। उनके हृदय को अपनी तरफ से साफ करने का यह अच्छा अवसर है।

सन्ध्या हो गयी थी। ज्ञानशंकर अपने सुरम्य बँगले के सामने मौलवी ईजाद हुसेन के साथ बैठे बातें कर रहे थे। मौलवी साहब ने सरकारी नौकरी में मनोनुकूल सफलता न देख इस्तीफा दे दिया था और कुछ दिनों से जाति-सेवा में लीन हो गये थे। उन्होंने ‘‘अंजुमन इत्तहाद’’ नाम की एक संस्था खोल, ली थी, जिसका उद्देश्य हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर प्रेम और मैत्री बढ़ाना था। यह संस्था चन्दे से चलती थी और इसी हेतु से सैयद साहब यहाँ पधारे थे।

ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे एक दिन-दिन का तजरबा हो रहा है कि ज़मींदारी करने के लिए बड़ी सख्ती की जरूरत है। ज़मींदार नजर-नजराना, हरी, बेगार, डाँड़-बाँध सब कुछ छोड़ सकता है, लेकिन लगान तो नहीं छोड़ सकता है। वह भी अब बगैर अदालती कार्यवाई के नहीं वसूल होता।

ईजाद हुसेन– जनाब बजा फरमाते हैं, लेकिन गुलाम ने ऐसे रईसों को भी देखा है जो कभी अदालत के दरवाजे तक न गये। जहाँ किसी असामी ने सरकशी की, उसकी मरम्मत कर दी और लुत्फ यह कि कभी डण्डे या हण्टर से काम नहीं लिया। गरमी में झुलसती हुई धूप और जाड़े में बर्फ का-सा ठण्डा पानी। बस, इसी लटके से उनकी सारी मालगुजारी वसूल हो जाती है। मई और जून की धूप जरा देर सिर पर लगी और असामी ने कमर ढीली की।

ज्ञानशंकर– मालूम नहीं, ऐसे आदमी कहाँ हैं? यहाँ तो ऐसे बदमाशों से पाला पड़ा है जो बात-बात पर अदालत का रास्ता लेते हैं। मेरे ही मौजे को देखिए, कैसा तूफान उठ गया और महज चरावर को रोक देने के पीछे।

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