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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर में कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की ओर रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार पत्रों में कई, विद्वतापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों में उद्धत किया, उन पर टीकाएँ कीं और कई अन्य भाषा में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि ताल्लुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबंध पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाए। बड़ी खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। कैसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पण्डाल बनाया गया था। राय कमलाचन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदान में भी सन्ध्या समय तक चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुस्सह था। रात में आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया वह इस समय अपने दीवानखाने के पीछे की ओर एक छोटी-सी कोठरी में बैठे हुए थे। ताक पर एक धुँधला-सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता था अग्निकुण्ड है। पर इस आग की मिट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घ काया किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुआ रखा हुआ था। तख्ते पर एक ओर दो मोटे-ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थीं इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमें इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।

प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठकर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया, उनके बैठने के लिए कुर्सी मँगाई और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूं, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब भी न सह सका। आपको देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। संसार ईश्वर का विराट् स्वरूप है। जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट स्वरूप का दर्शन कर लिया। यात्रा अनुभूत ज्ञान प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। कुछ जलपान के लिए मँगाऊँ?

प्रेम– जी नहीं, अभी जलपान कर चुका हूं।

राय साहब– समझ गया, आप भी जवानी में बूढ़े हो गये। भोजन-आहार का यही पथ्यापथ्य विचार बुढ़ापा है। जवान वह है जो भोजन के उपरान्त फिर भोजन करे, ईंट-पत्थर तक भक्षण कर ले। जो एक बार जलपान करके फिर नहीं खा सकता, जिसके लिए कुम्हड़ा बादी है, करेला गर्म, कटहल गरिष्ठ, उसे मैं बूढ़ा ही समझता हूँ। मैं सर्वभक्षी हूँ और इसी का फल है कि साठ वर्ष की आयु होने पर भी मैं जवान हूँ।

यह कहकर राय साहब ने लोटा मुँह से लगाया और कई घूँट गट-गट पी गये, फिर प्याले में से कई चमचे निकालकर खाए और जीभ चटकाते हुए बोले– यह न समझिए कि मैं स्वादेन्द्रिय का दास हूँ। मैं इच्छाओं का दास नहीं, स्वामी बनकर रहता हूँ यह दमन करने का साधन मात्र है। तैराक वह है जो पानी में गोते लगाये। योद्धा वह है जो मैदान में उतरे। बवा से भागकर बवा से बचने का कोई मूल्य नहीं। ऐसा आदमी बवा की चपेट में आकर फिर नहीं बच सकता। वास्तव में रोग-विजेता वही है जिसकी स्वाभाविक अग्नि, जिसकी अन्तरस्थ ज्वाला, रोग-कीटों को भस्म कर दे। इस लोटे में आग की चिनगारियाँ हैं, पर मेरे लिए शीतल जल है। इस प्याले में वह पदार्थ है, जिसका एक चमचा किसी योगी को भी उन्मत्त कर सकता है, पर मेरे लिए सूखे साग के तुल्य है; मैं शिव और शक्ति का उपासक हूँ। विष को दूध-घी समझता हूँ। हमारी आत्मा ब्रह्मा का ज्योतिस्वरूप है। उसे मैं देश तथा इच्छाओं और चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता हूँ। आत्मा के लिए पूर्ण अखण्ड स्वतन्त्रता सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। मेरे किसी काम का कोई निर्दिष्ट समय नहीं। जो इच्छा होती है, करता हूँ आपको कोई कष्ट तो नहीं है। , आराम से बैठिए।

प्रेम– बहुत आराम से बैठा हूँ।

राय साहब– आप इस त्रिमूर्ति को देखकर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयायुक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्याप्त है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुएँ हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठकर तप और ध्यान के स्वांग भरते हैं। वह कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जानें कि आत्मा-स्वातन्त्र्य क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती हैं। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए; मधुर गान का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं (दोनों पहलवानों से) पण्डा जी! तुम बिल्कुल बुद्धू ही रहे, यह महाश्य अमेरिका का भ्रमण कर आये हैं, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।

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1 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:22 PM

👏👌🙏🏻

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