कर्ण: एक आदर्श?
पता नहीं क्यों? पर तुमको मैं,
आदर्श नहीं हूँ कह पाता।
अंगराज तुम मौन रहे पर,
क्यों मौन नहीं मैं रह पाता?
सूर्यपुत्र थे, अमित तेजबल,
धनुविद्या के अद्भुत ज्ञानी।
देवों को भी लज्जित कर दो,
ऐसे थे तुम उद्भट दानी ।
सूत पूत की उपमा लेकर,
कटु तिरस्कार का घूँट पिया।
संघर्षित था सारा जीवन,
सबने तुमसे छल छद्म किया।
कितनी भी हो विषम परिस्थिति,
कभी न मानी तुमने हार।
तुम जगत में प्रथम पुत्र थे,
जिसने जननी पर किया उपकार।
उस रानी कुंती को तुमने,
अंगराज धर्म दिखाया था।
बिना पिए ही माँ के पय का,
तुमने मूल्य चुकाया था।
खुद जनार्दन गोविंद को भी,
पड़ी थी खानी तुमसे हार।
तुमने तो मित्रता के आगे,
राज वैभव को दिया नकार।
सेनापति के कर्तव्य तुमने,
सच्चे हृदय से निभाए थे।
सुयोधन की खुशी की खातिर,
भारतवर्ष जीत आए थे।
अपने धर्म व वचन हेतु,
तुम देते सबको इच्छित वर।
इसका लाभ उठाते सब जन,
हो पृथा या खल विप्र वर।
निज चर्म को दान में देकर,
इंद्रकांति को कर दिया क्षीण।
पांडुपुत्रों को अभय दे दिया,
चुका दिया था जननी का ऋण।
अडिग रहे थे वीर धर्म पर,
अश्वःसेन को दिया नकार।
अर्जुनवध का स्वप्न तोडकर,
भीमपूत का किया संहार।
अर्जुन संग ले कपि-किशन को,
गांडीव संग आया रण में।
कर्ण तेज में भस्म हो गया,
उसका मान कुछ ही क्षण में।
गोविंद रक्षित अर्जुन से भी,
तभी हो सका था तेरा वध।
रथ को धरती जकड चुकी थी,
शस्त्रविहीन तुम खड़े थे जब।
पढ़ महाभारत मन में आज,
यही भाव है उठ जाता।
हा दुर्दैव! काश मैं तुमको,
अपना आदर्श बना पाता।
न स्वीकारते अंग राज्य जो,
कर्ण कहो क्या होता अकाज?
भुजदंडों से राज्य जीतते,
अतीत विलग कुछ होता आज।
मित्र बन गए सुयोधन के तुम,
कोई न इसमें अनुचित बात।
संकट में जो साथ खडा हो,
नहीं छोड़ना चाहिए साथ।
आज कर्ण पर कहते मुझको,
हो रहा है यह भारी खेद।
दासत्व और मित्रता के मध्य,
तुम कभी समझ न पाए भेद।
रोके जो कुमार्ग जाने से,
मित्र वही हितैषी होता है।
अधर्मिता को जो दे प्रश्रय,
वो मित्र बैरी सम होता है।
माना दुर्योधन ना समझा,
तुमने किए थे लाख प्रयास।
महाभारत पढ़कर हमें भी,
उसके चरित्र पर है विश्वास।
पर अंगराज द्यूतसभा से,
हम सब कैसे बनें अनजान।
कैसे भूल जाए इतिहास,
द्यूतसभा द्रौपदी-अपमान।
वैश्या कहना पांचाली को,
अधम तुम्हारा था वह कर्म।
अबला को त्रास देना क्या,
कहा जा सकता योद्धा धर्म?
परशुराम भिड गए भीष्म से,
रखने हेतु नारी सम्मान।
शस्त्र भीष्म ने भी त्यागे थे,
रखने हेतु अंबा का मान।
तुम भी शिष्य उसी भार्गव के,
किंतु भेद यह, सके ना जान।
चाहे जो कोई भी हो स्थिति,
नहीं स्वीकार्य नार्यापमान।
शक्ति स्वरूपा होती नारी
है, शास्त्रों में इसका बखान।
उसी नारी- शक्ति का तुमनेे,
द्यूतसभा में किया अपमान।
वो उसी सभा का फल था जो,
महाभारत का सजा था रण।
उस महासमर के तुम भी,
उत्तरदायी रहोगे कर्ण।
तेरे बल पर ही कुमार ने,
महासमर को किया स्वीकार।
उसने सोचा तेरे रहते,
कभी न होगी रण में हार।
धर्मयुद्ध में भी तो तुमने,
मर्यादा को दिया था त्याग।
अभिमन्यु के वध से तुम,
कभी न सकते राधैय भाग।
तुम भी एक रथी थे उनमें,
अभिमन्यु वध में जो थे रत।
फिर कैसे अनुचित कह दूँ मैं,
अर्जुन के हाथों तेरा वध।
अवश्य मूर्ख थे तुम दोनों ही,
अकारण था तुम्हारा द्वंद।
अंतर क्या था? दोनों ही थे,
श्रेष्ठता के ही मद में अंध।
स्वयं को श्रेष्ठ बताने हेतु,
थे तुम दोनों के ही प्रयत्न।
क्या भीष्म-द्रोण कभी हुए थे,
श्रेष्ठता पर द्वैरथ में लग्न?
चलो श्रेष्ठ तुम सिद्ध हुए थे,
लडकर अर्जुन से अंतिम रण।
द्वंद भले ही हार गए थे,
थे तुम निःशस्त्र किंतु उस क्षण।
शापित जीवन जीकर भी तुम,
लडकर नियति से बने महान।
अर्जुन से तुम श्रेष्ठ धनुर्धर,
पूरे जग ने लिया है मान।
तेरे संघर्षित जीवन से,
कोई न है जग में अनजान।
कोई अब ना दे पायेगा,
राधैय तेरे जैसा दान।
पुण्य कर्मों से कीर्ती पाई,
तो तुम ये भी लो जान।
पुण्य कर्म ज्यों अमर जगत में,
पापों का भी नहीं अवसान।
काश कि तेरी कुछ भूलों से
कभी बन सकते हम अनजान।
हर दृष्टि से गलत रहेगा,
सौभद्र- वध, नारी अपमान।
लाख प्रयत्न किए हैं मैंनें,
पर उनको उचित न कह पाता।
शायद इसीलिए तुमको मैं,
आदर्श नहीं हूँ कह पाता।
¶ ¶ ¶
समाप्त
----अव्यक्त
Swati chourasia
04-Aug-2023 06:05 PM
निःशब्द बहुत ही बेहतरीन लाजवाब 👌👌👌👌👌👌
Reply
Raziya bano
06-Sep-2022 06:26 AM
Shaandar rachna
Reply
आँचल सोनी 'हिया'
06-Sep-2022 01:05 AM
..... निः शब्द हूं। अनुपम व अद्वितीय रचना🌺🙏
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