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रतनगढ - कहानी दो जहां की (भाग 14)


निहारिका हैरान परेशान खड़ी थी, वह समझ नही पा रही थी उसके साथ क्या हो रहा था। उसके जेहन में एक बार फिर अंदर जो भी घटित हुआ वह घटना घूमी।उसका रोम रोम सिहर गया। कुछ तो विचित्र है इस महल में। कुछ नही बहुत कुछ विचित्र है। वरना वे आवाजे, वे आहटे कहाँ से आती और क्यों..? वे आदमी बिल्कुल सही कह रहे थे कल। और इन दरवाजो के रंगों में यही इशारा कर रहा है कि जो भी है इस हिस्से में वह असाधारण है। और ये समर... कौन है ये समर..? यह इतना जाना सा पहचाना सा क्यों लगा। कुछ तो है उन आंखों में। 

वे साधारण तो कतई नही लगी हमे। वह वहीं खड़ी सोच रही थी कि तभी उसके कानो में फुसफुसाने की आवाजें पड़ीं। निहारिका आवाजो की वजह से पीछे मुड़ी, उसने देखा चटक धूप पड़ रही थी। और उसके पीछे पैलेस के गढ़ वाले महाराज के धाम जाने वाले लोगो की आवाजाही हो रही थी। लेकिन वे अब अंदर नही जा रहे थे बल्कि वहीं खड़े होकर फुसफुसाने लगे। वे निहारिका की ओर देखते जाते और फुसफुसाते। निहारिका को यह समझने मे देर नही लगी कि वे सब उसके बन्द दरवाजे की ओर खड़े होने पर कानाफूसी कर रहे हैं।

 निहारिका ने फौरन सारे किन्तु परन्तु को परे झटका और वह तुरन्त ही वहां से दूसरे दरवाजे से अंदर घुस गई। अंदर जाने पर निहारिका उस महल की शोभा देखती रह गयी।वह महल अंधकार के हिस्से वाले महल से उसे विपरीत जान पड़ा। अपने गर्भ में राजसी शानो शौकत को समेटे वह महल उसे जाना पहचाना लग रहा था। महल की शानदार नक्काशी के साथ, खम्भो पर उकेरी गई फूल पत्तियों को देख कर वह गर्व से भरी जा रही थी। हर चीज को बारीकी से देखते हुए वह वहां से आगे बढ़ी।

कुछ कदम आगे चलने पर वह निर्देशांक के पास से होकर गुजरी, एक सफेद रंग की तख्ती पर मोती जैसे शब्दों में लिखा था , "गढ़ वाले धाम" रास्ता इधर से है। तीर का निशान सामने जाने वाली गली की तरफ निर्देश प्रदर्शित कर रहा था। वहीं उसके बाएं एक शानदार गली नजर आ रही थी जो कंगूरों और मेहराबो से अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। उज़्ने एक सरसरी नजर डाली।कुछ ही आगे दो गार्ड भी दिखे उसे जो अशोक की छांव के नीचे बैठे सुस्ता रहे थे। हमे अभी गढ़ वाले धाम नही जाना है हमे पहले कुंवर सा से मिलना है उन्ही के कहने पर यहां की पुलिस सक्रिय होगी। यहां आज भी उनका शासन चलता है तब हमें उनसे ही मदद लेनी है।सोचते हुए निहारिका अपने बाएं मुड़ गयी। कुछ आगे बढ़ने पर वहां मौजूद गार्ड ने उसे रोक लिया।

 निहारिका ने अपनी नजर उठा कर उन्हें घूरा तब वे बुरी तरह चौंके। उनके चेहरे सहम गए थे और वे हैरानी से एक दूसरे को देखने लगे। कुछ पल तक उनके खामोश रहने के बाद उन्होंने निहारिका को बिन किसी पूछताछ के अंदर जाने का रास्ता दिया। निहारिका उन्हें धन्यवाद कह वहां से आगे बढ़ गयी। वह मेहराबो को पार करते हुए खूबसूरत बरामदे में प्रवेश कर रही थी जब उसने एहसास हुआ पैलेस का वह हिस्सा पूरी तरह खाली है। वहां किसी की मौजूदगी नही है। चलते हुए उसे अनजाना भय होने लगा और उसके कदमो की गति भी थोड़ी कम हो चुकी थी। उसके कदमो की आहट अब उस बरामदे में गूंजने लगी जो उसे बीच बीच मे किसी और के होने का भ्रम करा रही। निहारिका मन को कड़ा कर आगे बढ़ती गयी।

 बरामदे से निकलने के बाद वह एक खूबसूरत बगीचे में पहुंची। जहां हर तरह के पेड़ थे। विभिन्न तरह की देशी विदेशी फूलो की नस्ल, सज्जा के तरीके, अफ्रीका, यूरोप एशिया की तकनीक प्रयोग में लाई गई थी उस बगीचे की सुंदरता को निखारने के लिए। यूरोपीय देशों से मंगवाया गया पुरातन झूला बागीचे की शान बढ़ा रहा था। यहां तक कि उसमे बैठने योग्य स्थलो का निर्माण का कार्य भी बहुत बारीकी से किया गया था। छोटी छोटी पीली रंग की बेंचो की बनावट हूबहू महल की एक दीवार जैसी की गई थी। निहारिका आर्किटेक्ट देखते हुए यह भूल ही गयी थी कि वह वहां क्यों आई थी। उसके कदम रुक गए और वह चारो ओर हैरान भरी नजरों से देखने लगी।

"ए छोरी" एक गूंजती हुई सख्त मर्दानी आवाज निहारिका के कानों में पड़ी! कल्पनालोक से बाहर निकलती हुई निहारिका तुरन्त ही वास्तविकता में आ गयी और चौंकते हुए पीछे मुड़ी। पीछे कोई नही था। उसने वापस गर्दन मोड़ी और एक बार फिर चारो ओर देखने लगी। उसे कहीं कोई नजर नही आया। वह उलझन में पड़ गयी और थोड़ी सिमट भी गई थी खुद में।

आवाज तो आई थी हमे! फिर कोई दिख नही रहा है? कुछ तो गड़बड़ है महल के इस हिस्से में भी। अंधेरे उजाले का विचित्र और अप्रकृतिक अंतर तो पहले से ही था और अब ये आवाजो की समस्या। कहीं यह जगह ही तो भूतिया नही है। नही...ऐसा भला कैसे होगा। कुंवर जी भी तक यहीं रहते हैं इसी पैलेस में। इन सब में भी बहुत सारा रहस्य छुपा हुआ है।ये जगह ही रहस्यों से भरी प्रतीत हो रही है। लेकिन जो भी है मन भावन है। यहाँ आकर मन को अच्छा बहुत लग रहा है। बाकी सबका हमे पता नही, काश हमारी छुटकी और मान्या भी हमारे साथ होती। सब कितना अच्छा होता। छुटकी और मान्या, दोनो की ही याद आने पर निहारिका का मन एक बार फिर अफसोस से भर गया और वह तुरंत ही वहाँ से आगे जाने लगी। 

बाग के रास्ते से आगे बढते हुए उसकी नजर वहाँ कार्य करते हुए कुछ मालीयों पर पड़ी। वे सभी बड़े ही चाव से बागीचे की साज सज्जा का कार्य कर रहे थे। उन्हे देखते हुए निहारिका आगे बढ गयी।बागीचे से गुजरने के बाद वह एक बड़े से हॉल नुमा कमरे मे पहुंची। वहाँ उसे कोई नजर नही आया। वह आगे बढ गयी। हॉल नुमा कमरे मे पहुचने के बाद निहारिका पूरी तरह असमंजस मे पड़ गयी। उसे समझ नही आ रहा था कि उसे किस तरफ जाना चाहिये। उस महल के सारे कमरे लगभग एक जैसे थे। उस पर वह वहाँ पहली बार आई थी। निहारिका उलझन मे वहीं खड़ी रह गयी। 

कुंवर साहब कहाँ होगे, वे कहाँ मिलेंगे ये तो हमे मालूम नही, और हम यहाँ तक आ गये हैं न जाने वे किस कक्ष मे है और बाहर कब तक आयेंगे। हमे यह भी नही पता कि वह कब सबसे मिलते हैं। हमने किसी से पूछा भी नही इस बारे मे समय ही नही मिला इतना। लेकिन अभी हमारा उनका पता लगाना बेहद जरूरी है। वे न जाने कहाँ होगे। निहारिका सतर्क नजरो से चारो ओर देखते हुए आगे बढ गयी। कुछ आगे जाने पर उसे हल्की सी सिसकी की आवाजे सुनाई पड़ी। महल के सन्नाटे को तोड़ती और वह आवाजे उसे साफ सुनाई पड़ रहीं थीं। वह उन आवाजो के पीछे बढ गयी। कभी सिसकी और कभी आह भरती वे आवाजे उसे पास ही आती सुनाई दी। वह हिम्मत कर आगे बढती गयी। वे आवाजे उसे पास आती लग रही थीं।

 निहारिका आवाजो को पीछा करते हुए एक बड़े से कमरे के दरवाजे के सामने रूक गयी जो हल्का सआ खुला हुआ था और उस पर हल्का सा पर्दा पड़ा हुआ। वह वहाँ खड़ी होकर अंदर झांकते हुए उन सिसकियो की वजह का पता लगाने लगी। निहारिका ने देखा अंदर जो भी था उसकी पीठ ही उसकी ओर थी। उसके बाल थोड़े बड़े थे और वह अपने पैरो को बार बार स्पर्श कर रहा था। वह वहाँ कुछ ही पल खड़ी हो पाई थी कि तभी उसे किसी के पैरो की आहट महसूस हुई वह तुरंत ही वहाँ से हट गयी और छुपने की जगह ढूंढने लगी। चारो ओर एक जैसे कमरे जानकर निहारिका छुपने के लिये उसी कक्ष से कुछ दूर स्थिर एक गैलरी की तरफ भागी।

 वह लम्बा सा बरामदा जैसा था। जो करीब पच्चीस तीस कदम चलने के बाद एक कमरे मे बदल रहा था। निहारिका बिन देर किये दहशत से भरते हुए उस कमरे मे सरपट दौड़ गयी। उसने देखा वहाँ रोशनी मद्ध्म थी। लेकिन इतनी भी नही कि उस कमरे मे क्या है यह पता न लगाया जा सके। एक कोने मे रोशनी के लिये आधुनिक बल्ब का इंतजाम किया गया था जिसकी रोशनी दरवाजे तक आते आते मद्धम पड़ रही थी। उसे देख कर निहारिका समझ गयी कि वह एक लाइब्रेरी के अंदर खड़ी है।क्युंकि उस कमरे उस कोने मे वह रोशनी के नीचे एक टेबल और एक कुर्सी रखी हुई थी। धौंकती भागती सांसो को सम्हालते हुए निहारिका ने अपने कदम आगे बढाये। वह चारो ओर रखी किताबो को देख रही थी। वे किताबें करीने से रखी हुई थी कुछ पर तो बड़े बड़े अक्षरो मे लिखे नाम उसे नजर आ रहे थे और कुछ पर उसे केवल उभरे हुए चित्र ही नजर आये। निहारिका आगे बढते हुए एक एक रो को देखने लगी।

 कुछ आगे बढने पर उसकी नजर “रतनगढ का शापित इतिहास” नामक एक किताब पर पड़ी। उसके जेहन मे तुरंत ही रतनगढ से समबंधित कुछ अस्पष्ट छवियां उभरी और उसने उस किताब को उठा लिया। करकराती रेत उसे अपनी अंगुलियो पर महसूस हुई। उसने किताब पर नजरे जमाई। वह किताब देखने से ही ऐसा लग रहा था कि कई सालो से उस किताब को खोला नही गया है। निहारिका उस किताब को देखते हुए ही सोच मे पड़ गयी। उसके मन मे ख्याल आया शायद वह इस किताब को पहले भी देख चुकी है.......लेकिन कह

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7 Comments

shweta soni

30-Jul-2022 08:14 PM

Nice 👍

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Shnaya

03-Apr-2022 02:20 PM

Very nice 👌

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Seema Priyadarshini sahay

14-Jan-2022 01:18 AM

बहुत ही सुंदर, रोचक और मनभावन

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