गुनाहों का देवता
पाँच बजे, और वह साइकिल लेकर पहुँचा। देखा, सुधा और बिनती दोनों नहीं हैं। अकेले डॉक्टर शुक्ला अपने कमरे में बैठे है। चन्दर गया। "आओ, सुधा ने तुमसे कह दिया, उसे पसन्द है।" डॉक्टर शुक्ला ने पूछा।
"हाँ. उसे कोई एतराज नहीं।" चन्दर ने कहा।
"मैं पहले से जानता था। सुधा मेरी इतनी अच्छी है इतनी सुशील है कि वह मेरी इच्छा का उल्लंघन तो कर ही नहीं सकती। लेकिन चन्दर कल से उसने खाना-पीना छोड़ दिया है। बताओ, इससे क्या फायदा? मेरे बस में क्या है? मैं उसे हमेशा तो रख नहीं सकता। लेकिन, लेकिन आज सुबह खाते
वक्त वह बैठी भी नहीं मेरे पास बताओ... उनका गला भर आया- "बताओ, मेरा क्या कसूर है?"
चन्दर चुप था। "कहाँ है सुधा?" चन्दर ने पूछा।
"गैरेज में मोटर ठीक कर रही है। मैं इतना मना किया कि धूप में तप जाओगी, लू लग जाएगी लेकिन मानी ही नहीं! बताओ इस झल्लाहट से मुझे कैसा लगता है?" वृद्ध पिता के कातर स्वर मैं डॉक्टर ने कहा, "जाओ चन्दर तुम्हीं समझाओ! मैं क्या कहूँ?"
चन्दर उठकर गया। मोटर गैरेज में काफी गरमी थी, लेकिन बिनती वहीं एक चटाई बिछाये पड़ी सो रही थी और सुधा इंजन का कवर उठाये मोटर साफ करने में लगी हुई थी। बिनती बेहोश सो रही थी । तकिया चटाई से हटकर जमीन पर चला गया था और चोटी फर्श पर सोयी हुई नागिन की तरह पड़ी थी। बिनती का एक हाथ छाती पर था और एक हाथ जमीन पर आँचल, आँचल न रहकर चादर बन गया था। चन्दर के जाते ही सुधा ने मुँह फेरकर देखा - चन्दर आओ।" क्षीण मुसकराहट उसके होठों पर दौड़ गयी। लेकिन इस मुसकराहट में उल्लास लुट चुका था, रेखाएँ बाकी थीं। सहसा उसने मुड़कर देखा - बिनती! अरे, कैसे घोड़ा बेचकर सो रही है! उठ ! चन्दर आये हैं।" बिनती ने आँखें खोली, चन्दर की ओर देखा, लेटे-ही-लेटे नमस्ते किया और आँचल सँभालकर फिर करवट बदलकर सो गयी।
"बहुत सोती है कम्बख्त!" सुधा बोली, "इतना कहा इससे कमरे में जाकर पंखे में सो! लेकिन नहीं, जहाँ दीदी रहेगी, वहीं यह भी रहेगी। मैं गैरेज में हूँ तो यह कैसे कमरे में रहे। वहीं मरेगी जहाँ मैं मरूँगी।" "तो तुम्हीं क्यों गैरेज में थीं! ऐसी क्या जरूरत थी अभी ठीक करने की!" चन्दर ने कहा,
लेकिन कोशिश करने पर भी सुधा को आज डॉट नहीं पा रहा था। पता नहीं कहाँ पर क्या टूट गया था। "नहीं चन्दर, तबीयत ही नहीं लग रही थी। क्या करती। क्रोसिया उठायी. वह भी रख दिया। कविता उठायी, वह भी रख दी कविता वगैरह में तबीयत नहीं लगी। मन में आया कोई कठोर काम हो, कोई नीरस काम हो लोहे-लक्कड़ पीतल फौलाद का तो मन लग जाए। तो चली आयी मोटर ठीक करने।"
"क्यों, कविता में भी तबीयत नहीं लगी? ताज्जुब है, गेसू के साथ बैठकर तुम तो कविता में घंटों गुजार देती थीं!" चन्दर बोला।
उन दिनों शायद किसी को प्यार करती रही होऊँ तभी कविता में मन लगता था।" सुधा उस दिन की पुरानी बात याद करके बहुत उदास हँसी हँसी-"अब प्यार नहीं करती होऊँगी, अब तबीयत नहीं लगती। बड़ी फीकी, बड़ी बेजार बड़ी बनावटी लगती हैं ये कविताएँ, मन के दर्द के आगे सभी फीकी हैं। " और फिर वह उन्हीं पुरजों में डूब गयी। चन्दर भी चुपचाप मोटर की खिड़की से टिककर खड़ा हो गया और चुपचाप कुछ सोचने लगा।