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स्वर्णमुखी




स्वर्णमुखी


मुझ नीरस को रसिक बना दो।

नहीं मिला है रस पीने को।

दृग से ओझल पथ जीने को।

इसमें प्रेमिल रस बरसा दो।


है उदास इसका मन पागल।

रुनझुन की आवाज दूर है।

जीवन का संगीत क्रूर है।

देखा नहीं कभी भी पायल।


होठों पर मुस्कान नहीं है।

नहीं लालिमा अंतःपुर में।

सदा कालिमा मेरे उर में।

कोयल का मधुगान नहीं है।


रस की इच्छा जिसमें रहती।

प्रेम गंग उसमें नित बहती।।




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2 Comments

Gunjan Kamal

09-Apr-2023 09:05 PM

बहुत खूब

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बेहतरीन

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