हरिहरपुरी की कुण्डलिया

251 भाग

278 बार पढा गया

8 पसंद किया गया

हरिहरपुरी की कुण्डलिया सागर  मन-भव से निकल, उठतीं सतत तरंग। रंग-रंग के रूप हैं, विविध अंग-प्रत्यंग।। विविध अंग-प्रत्यंग, बनाते अनुपम जगती। तरह-तरह के दृश्य, विविध लगती यह धरती।। कहें मिसिर कविराय,तरंगें ...

अध्याय

×