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हरिहरपुरी की कुण्डलिया सागर मन-भव से निकल, उठतीं सतत तरंग। रंग-रंग के रूप हैं, विविध अंग-प्रत्यंग।। विविध अंग-प्रत्यंग, बनाते अनुपम जगती। तरह-तरह के दृश्य, विविध लगती यह धरती।। कहें मिसिर कविराय,तरंगें ...