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हरिहरपुरी की कुण्डलिया मारा जिसने मन सतत, वही बना प्रिय सन्त। मन-साधक ही एक दिन, चढ़ता गगन अनन्त।। चढ़ता गगन अनन्त, बना कौतूहल रहता। बनकर मोहक दृश्य, स्वयं में विचरण करता।। ...